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Saturday, May 26, 2012

उमेश पासवानक कविता संग्रह “वर्णित रस” -समीक्षक गजेन्द्र ठाकुर

उमेश पासवानक कविता संग्रह “वर्णित रस” 

कविकेँ युवापर भरोस छन्हि, आ तेँ युवाकेँ सम्बोधितो करै छथि आ आह्वानो करै छथि। 

  “हम युवा” कवितामे 
  जाति‍-धर्म मजहब केर नामपर 
षडयंत्र रचैए कि‍यो हमर देशकेँ भीतर आबि‍ कऽ 
आतंकवादक गाछ रोपैए कि‍यो 
  तकर सम्बन्ध हुनकर “जीतक झण्डा” कवितामे 
  जरै जाउ वतनक दुश्मन 
  आगि‍ सुनगाएल करू 
  देखबामे अबैए। ई जे दुश्मन अछि सएह फहरबाबइए जीतक झण्डा 
  जरै जाउ वतन केर दुश्मन 
  आगि‍ सुनगाएल करू 
  जीत केर झंडा फहराएल करू 
  “हम युवा”मे सेहो ओ कहै छथि 
  आतंकवादक गाछ रोपैए कि‍यो 
  भारतवासी शेर छी 
  शेरकेँ मादमे आबि‍ कऽ 
  जगबैए कि‍यो 
  कारण जे देशक युवा छथि से 
छी गोली, हम छी बारूद 
  हमही खंजर तलवार छी 
  तखन ऐ गोली लेल पेस्तौल, बारुद लेल आगि के छथि? ओ छथि युवा जे छथि खंजर आ तलवार। 
  तँ की दुश्मनी आधारित जोश छन्हि हुनकर कविता? नै से नै अछि- 
  जौं दोस्तीतक लेल हाथ बढ़ाएब 
  तँ हमही फूलक माला गला केर हार छी 
  कविकेँ टंगघिच्चा-घिच्चीक खेल नै पसिन्न छन्हि। आ कवि कहै छथि। 
  ऊपरसँ नूनू बौआ 
  भि‍तरे-भि‍तर कहैए बकलेल 
बर्षोसँ देखि‍ रहल छी 
  हर तरहसँ दलि‍तक उपेक्षा 
  बाढ़िक प्रकोप कविकेँ कहबापर विवश करै छन्हि: 
  केना कऽ ऐबेर 
  खेतक आड़ि‍पर जा कऽ 
कहब सेर-बरोबरि‍ 
  उखैर सन बीट 
  समाठ सन सि‍स 

  गबहा संक्रान्तिपर कविकेँ कहऽ पड़ै छन्हि: 
  केना कऽ गुजर चलत 
  उपजा कऽ कास-पटेर 
  कोसीकेँ कहै छथि: 
  कऽ देलि‍ऐ मि‍थि‍लाकेँ दू-भागमे अहाँ 
  पूबमे सहरसा-सुपौल 
  पछि‍ममे मधुबनी-दरभंगा 
  बि‍चमे अगबे बालु आ धूल 

  मुदा फेर निर्मल्लीक पुल बनबाक चर्च: 
कहू आब कतेक चुप रहब 
ऐबेर हम बना देलौं पुल 

  पढ़ल-लिखल दलितक सामान्य दलितक प्रति व्यवहारपर जतेक अम्बेडकर दुखी रहथि ततबे चिन्ता उमेश पासवानकेँ सेहो छन्हि: 
  स्वयं दलि‍त छी 
  दलि‍तक दरद जनै छी 
  कि‍छु व्यक्ति ‍क कि‍रदानीसँ 
  चकि‍त छी 
  दलि‍त भऽ कऽ ओ 
  व्यक्ति अपनो समाजकेँ बि‍सरि‍ गेल 
  अप्पन भाषा-भेष छोड़ि‍ कऽ 
दोसरक रंग-ढंगमे ढलि‍ गेल 
  समाजसँ पुछै छथि: 
  हम दलि‍त छी 
  मेहनति‍-मजदुरी कए कऽ 
  बि‍तबै छी अपन जीवन 
  तैयो जरैत अछि‍ 

  कवि, जगदीश प्रसाद मण्डल जी सँ प्रभावित छथि आ से ओ एकटा कविताक माध्यमे कहै छथि: 
  हम छी सेवक मैथि‍ल 
जगदीश बाबूक चेला नै 
  हमरा लड़ू खि‍यौलनि‍ 
  नै देलथि‍ मि‍श्रीक ढेला 

  मुदा हास्यसँ ओ दूर नै गेल छथि: 
झोटा झोटौबलि हेतौ नटि‍नि‍या 
  तोरा संग अही बेर गे 
  वसन्तक आगमनसँ मात्र फूल-पात नै आन-आन जीवनसँ सम्बन्धित वौस्तपर ध्यान जाइ छन्हि हुनकर:
  
  गाछ-वृक्षमे नव कनोजरि‍क संग 
  मोजर फूल ि‍नकलैत अछि‍ 
  खेतमे गहुम-खेसारी ति‍सी-मसुरी तोरीक फूलसँ 
  समुच्चाू बाध गमकैत अछि‍ 
  मधुमाछी लगौने सेनुरि‍या आमक गाछपर 
छत्ता देखि‍ कऽ लुक्खी डरैत अछि‍ 
  अरहुलक फूल चूसि‍ कऽ 
फुलचोभी चि‍हुकैत अछि‍ 
  कौआ आ कोइलीमे 
  भेल अछि‍ कनाइर 
  पानि नै चलबाक गप नै बुझाइ छन्हि हुनका: 
  देहसँ देह केना छुबाइ छै 
  कि‍एक नै चलैए हमर छुअल पानि‍ यौ 
  कोन जुलुमक सजा हमरा 
  दऽ रहल छी कि‍अए बुझै छी 
  हमरा अपमानी यौ 
  सुदामा आ कृष्णक दोस्तीकेँ सभ अलग कऽ देलक: 
दुनू दोसकेँ अलग कऽ देलक लोक 
अप्पन रास्ताक दि‍वार जकाँ 
  हँसैत खेलैत...। 
  ई दशा किए भेल? 
  सहलौं सभ कि‍छु सलहेशक संतान रहि‍तो 
जहि‍या तक चुप रहलौं हम 
  कहै छथि: 
  कतेक लि‍खब दलि‍तक बेथा 
  सलहेश गामक संदेश। 
  मुदा की मिथिलाक भाषा संस्कृति ककरो अनकर छी? नै ई तँ हमर छी आ तै पर गर्व करै छथि कवि: 
  हरक पाछाँ बगुला घुमैए 
  हरबाहा जोरसँ बरदकेँ 
  बाबू भैया कहि‍ हँकैए 
  देशक विकास आ नेता पर हुनका आक्रोश छन्हि: 
ऐठामक नेता छै माला-माल 
रोड-सड़ककेँ देखि‍यौ तँ 
कदबा गजार सन छै थाल 
  आ जे बड़का-बड़का राष्ट्रीय राजमार्ग (नेशनल हाइवे, एन.एच.) छै से तकर विवरण किछु एना छै: 
  मौतक चौराहा बनल अछि‍ 
एन.एच भुतहा मोड़। 
  लोकक दशा-दिशापर मुर्दा सेहो चिन्तित अछि: 
  गारल मुर्दा छटपटा रहल अछि‍ 
  भि‍तरसँ अंगुरी 
  अप्पन उठा रहल अछि‍ 
  नारीक कर्मनिष्ठ स्वभावपर हिनकर लेखनी खूब चलल छन्हि: 
  ओमहर बि‍आ जे उखारै छै 
  महि‍ला जन कोइ करै छै, 
  सासु-ननदि‍क नि‍ना-बि‍ना 
  कोइ गबै छै सोहर-समदाैन 
  कवि तुकमिलानीमे सेहो ढेर रास गप कहि जाइ छथि, पंजाबमे होइत मजदूरक पलायनक चर्च देखू: 
  जौं अखार महि‍नामे बुढ़ बड़द, 
  पजरामे दरद 
  पंजाबमे मरद अछि‍ 
  तँ समझू हे गेलहे घर छी। 
  आह्वान करै छथि: 
  साहि‍त्यक दलि‍दर 
  कतेक जुलुम करैए हमरापर 
  कि‍यो तँ बाजू 
  कि‍यो हमरा दि‍ससँ 
  अवाज उठाउ 
  अधिकार तँ चाहबे करी: 
  अप्पन सोल्हनी बला रसा 
  आब नै सुनब हम 
  बर्खा तोड़ि दैए बान्हकेँ आ बना दैए गाम केँ कोसी आ कमला: 
  लधने छल सतहि‍या 
  ढौसाबेंग कि‍ड़ी-मकौड़ी 
  करै छल सोर भुरुकुबा 
  कनी उगल छल चुह-चुहि‍या 
  तँ की कहल जाए ऐ “वर्णित रस” सभकेँ। की कविक वसन्त मात्र फूल-पात देखैए जे मात्र सुगन्ध दैए, आँखिकेँ सुख दैए, मुदा जरल पेटकेँ से नीक लगतै? ते कविक वर्णित वसन्तक रस ओ फल विहीन सुन्दर फूल नै भऽ सकैए, आ से नहिये अछि। दलित विमर्श दलित द्वारा, आ ओइ दलित द्वारा जेकर धुआधजा छै सलहेश सन, नै बिसरल अछि अपन संस्कृति, बोली-वाणी, नै बिसरल अछि सोहर-समदौन। आ से छथि उमेश पासवान। आ जे हुनकर वसन्तकेँ देखबाक, एन.एच.क चौराहाकेँ देखबाक दृष्टि फराक अछि तेँ हुनकर कविता सेहो फराक अछि।
-गजेन्द्र ठाकुर १८ मइ २०१२

Friday, May 25, 2012

मैथिलीक भिखारी ठाकुर “रामदेव प्रसाद मण्डल "झारुदार" क “हमरा बि‍नु जगत सुन्ना छै” -समीक्षक गजेन्द्र ठाकुर

मैथिलीक भिखारी ठाकुर “रामदेव प्रसाद मण्डल "झारुदार" ” दै छथि माटि आ कहै छथि “हमरा बि‍नु जगत सुन्ना छै”। 
मैथिली साहित्य वा कोनो भाषाक साहित्यमे झारु नामक काव्य विधा सुनने रहिऐ? रामदेव प्रसाद मण्ड्ल “झारुदार” जीक झारुकेँ छोड़ि कऽ? नै ने! 
  कारण रामदेव प्रसाद मण्डिल “झारुदार” महीसक पीठ, खेतक आड़ि-धूर आ रस्ता चौबटियापर स्वतः स्फूर्त जे नव विधाक आविष्कार केने छथि से समाजक दुर्गुणकेँ खरड़ासँ खरड़बा लेल छै। फुलझाड़ूसँ खरिहान नै बहारल हएत, आ खरड़ा सँ ओसारा नै बहारि सकै छी। लाठीमे राहड़िक डाँटक झारुसँ झोल-झाल साफ कएल जाइए। से तरह-तरहक बाढ़नि, आ खरड़ाक प्रचलन अछि। रामदेव जी गीत सेहो लिखै छथि, आ पनिसोखा सन रंग बिरंगक झारु सेहो। जेहेन समस्या तेहने झारु। आ मैथिलीमे जखन गोत्र-मूलक उपनाम रखबाक प्रवृत्ति किछु नव आ पुरान लेखकमे देखल जा रहल अछि तखन ई “झारुदार” 
उपनाम की सभ बिनु कहने कहि जाइए? 

कविक आत्मविश्वास, हम नै तँ किछु नै। 
हमरासँ पहि‍ले कोनो नै शासन। 
नै छै कोनो धर्मक वि‍धान।। 
हमरा बि‍नु जगत सुन्ना छै। 
हटैबला छै पशु समान।। 

आब ताकि लिअ ऐ झारुमे बौद्ध दर्शनक शून्यवाद आ शंकरक अद्वैत दर्शन! 
हुनका पैसाक रोग नै चाही तँ अंध्विश्वासक रोग सेहो नै। 
सभ बनल छै पैसा रोगी, 
अन्धवि‍श्वास, कुरीतक जोगी 
मुदा ऐ लेल रामक तीर कमान चाही की? कारण तइ लेल तँ रामक अवतारक प्रतीक्षा करए पड़त। नै, स्वयंपर करू विश्वास, कारण जँ समस्या अहाँ छी तँ समाधान सेहो अहीं। 
अहाँ बि‍ना के ई दुख हरतै 
अहींसँ ई सभ दानव मरतै 
कलमकेँ एक बेर फेर बनाबू 
रामक तीर कमान यौ। 
आपसी एकताक महत्व कवि नीक जेकाँ बुझै छथि, मुदा एकता कोना आओत, तकर समाधान देखू: 

एकता बनैले सहए पड़ै छै 
घटो लगा कऽ बहए पड़ै छै 
अपन गलतपर लहए पड़ै छै। 
नारीक स्थिति, से ओ नारी गामक होथि वा नेता ने किए बनि गेल होथि, अखनो टीस उठबैत अछि, आ कवि जँ झारुदार होथि तँ ओइ टीसक वर्ण एना होइत अछि: 
नारी सीता राधा अंश, 
पुरूष बनल छै रावण कंश। 
फेर कोना कऽ चलतै, 
घर दुनि‍याँदारी यौ। 
मुदा तकर उपाय, की पुरुष बदलत नारीक दशा? नै, ई आत्मविश्वास स्वयंनारीमे छन्हि, ओ शिक्षाक डोर पकड़ती 
आ… 
आब नै नारी रहब अनारी, 
बनबै सख्ती कठोर यौ। ना....। 

तँ की वएह नारी, जाति-पाति आदिक समस्या टा पर ध्यान छन्हि कविक? नै, ओ प्रदूषण सन विज्ञानक देनपर सेहो चिन्तित छथि: 

वि‍ज्ञानक ई देन प्रदूषण 
बनि घर घुसल चुहार यौ। 
बाघ बनि‍ ई मुँह बौने अछि‍ 
दुि‍नयाँ बनल सि‍कार यौ 
प्रदूषण कोना कम हएत, सेहो नव खाढ़ीकेँ राह देखबै छथि: 
इंजन हो पूरा कंडीसन
धुआँ नै छोड़ै बेकार यौ। 
करू खि‍याल कि‍छु अगि‍ला पि‍ढ़ी 
कोना रचत संसार यौ। 

आ ऐ पर हुनकर एकटा झारु सेहो छन्हि, ओ वने टा नै वनवासीक सेहो संरक्षण चाहै छथि: 

वन झी‍ल नदी‍ आ वनवासी 
पहार पठार संग रेगि‍स्तान। 
करू सुरक्षा पर्यावरण केर 
सँ देश बनत धनवान।। 

दहेज आ काटर प्रथापर रामदेव जी लिखै छथि: 
आइ हर घरमे सीता रोऐ छै 
राइत-राइत भरि‍ नै जनक सुतै छै 
कतए सँ एतै दहेजक पैसा 
हेतै केना कन्याकदान यौ 
मिथिलापर झारुदारकेँ गर्व छन्हि, कोन मिथिलापर: 
जगतरनी जतए गंगा धारा, ज्योगति‍ लि‍ंग केर जतए उज्या:रा। 
हजरत तुलसी बाल्मिा‍कक गुँजि‍ रहल उपदेश। 

मुदा बिहार अन्तर्गत जे मिथिला छै तकर दशापर झारुदार चिन्तित छथि आ बिहारक मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, जे विकास पुत कहल जाइ छथि हुनका झारुदार किछु देखबऽ चाहै छथि: 
केमरासँ तस्वी‍र बनेबै 
मि‍थिला मैथि‍ल परि‍वार केर। 
तकरा देखेबै पटना जा कऽ 
वि‍कास पुत नीि‍तश कुमारकेँ। 
फोटो बनेबै खेत असि‍ंचि‍त 
सि‍ंचाइ पानि‍ वि‍जलीसँ वंचि‍त। 
मानवता ककरामे हेतै, मानवे मे ने। आ तकरे ने भेटतै दुनियाँक ताज आ सएह ने जीतै बनि झारुदार! 
ताज मि‍लै सम्पू‍र्ण जगतक 
बनि‍ जीबए झारूदार 
मानवमे मानवता होइ तँ 
बदलै नै ओकर अवतार 
तँ झारु आ गीत, जे बोन-झाँकुरमे खेत-पथारमे घुमैत-फिरैत लिखाएल से तँ विशिष्ट हेबे करतै आ ओकर लिखैबलाकेँ से ताज भेटबे करतै। मिथिलाक भिखारी ठाकुर ओइ ताजकेँ पहीरि झारुदार कहेबे करतै। 

-गजेन्द्र ठाकुर १८ मइ २०१२

“रथक चक्का उलटि चलै बाट” -रामवि‍लास साहु जीक कविता, हाइकू, शेर्न्यू आ टनका संग्रह -समीक्षक गजेन्द्र ठाकुर

“रथक चक्का उलटि चलै बाट” ई रामवि‍लास साहु जीक कविता, हाइकू, शेर्न्यू आ टनका संग्रहक नाम अछि। खाँटी शब्दावलीक प्रयोग आ ओइ माध्यमसँ तीन पाँतिक हाइकू आ पाँच पाँतिक टनकामे हिनकर प्रकृति-प्रेमक माध्यमसँ भावोद्गार एतेक रास तथ्य सोझाँ अनैए, समस्या आ समाधान तकैए जे पढ़निहार बाजि सकैए, हँ ई हम किए नै सोचि सकलौं, मुदा आब सोचि सकब। 
रथक चक्का 
उलटि‍ चलै बाट 
चाक चलै छै 
ठामे ठाम नचैत 
दुनु करै दू काम 
जापानक बाशो नै मोन पड़ि जाइ छथि रामविलास साहु जीक ऐ टनकासँ: 

सावन मास 
जलक बुन्नद पड़ै 
समानसँ 
बेंगक बाजा बजै 
खन्ता डबरा भरै 
हिनकर मानव आ प्रकृतिक मेल कतेक अद्भुत लगैत अछि: 
कारी काजर 
मुखड़ा ि‍बगारैत 
कारी कोइली 
मधुर गीत गबै 
सभकेँ ललचाबै 
मुदा कारी काजरक उपमा एतै खतम नै भेल अछि: 
कारी काजर 
आँखि‍ देत सुखाय 
कारी बादल 
बरखासँ डुबाय 
मुखरा देत बि‍गाड़ि‍ 
रौदक गुण तँ प्रकृति-प्रेमी कवि पढ़ि लैए, वसन्त आ हेमन्त वर्णनासँ की ई कम अछि? 
चैतक रौद 
तपाबै माटि‍-पानि‍ 
पछि‍या हवा 
पकाबै चना-गहुम 
बहारै धूर-कण 
कविता कहैमे कवि सेहो पाछाँ नै छथि, कोसी धार हुनका हिलोरै छन्हि: 
जि‍नगी बनल अछि‍ हमर कंगाल 
झौआ, पटेर, काश खगरा हमरासँ करैए रगड़ा 
बाल बच्चा क जि‍नगी बाउलमे समाएल 
अन्धविश्वासपर कविक कलम चलै छन्हि: 
गाेसाँइ खेले भगता-भगति‍नि‍याँ 
छत्तीस देवी चौदहो देबान 
अखन छौ देहपर ि‍वरजमान 
जे मांगब से पूरा करतौ 
कारनीक सभ रोग वि‍याधि‍ हरतौ 
फूल-अच्छतसँ वरदान देतौ 
बि‍गरल काज मनोकामना 
चुट्की बजि‍ते पूरा करतौ 
बदलामे लड्डु-छागर-पाठी मांगतौ 
कवि किसान छथि तँ किसानी कोना बिसरताह: 
बि‍हानेसँ गजार कदबा 
हुअए लगल खेत 
हर जोतैत हरबाह 
बि‍रहा गाबैत 
  फेर… 
“हरक नाश आ 
  खेतक चासपर 
पेट भरबाक अछि‍ 
सभकेँ आश।” 
तखन…… 
गहुमक दाना कोठीमे भरलौं 
भूसीकेँ भुसकाँरमे टलि‍येलौं 
चारि‍ मासक गहुमक फसलि‍ 
दि‍न-राति‍ खटि‍ कऽ घर केलौं 
साल-भरि‍ रोटि‍यो खाए जीअब 
गामक शब्दावली फकरा-कहबीक माध्यमसँ बहुत रास गप कहि जाइ छथि कवि: 
हाटक चाउर बाटक पानि‍ 
बनि‍याँ घरक तरजूकेँ 
नै होइ छै कोनो माइन 
कारण.. हाटक चाउर बाटे बि‍लाएल घाटक पानि‍ घाटे सुखाएल 
देशी इलाज आ रोगक रोकथाम सेहो कविकेँ बुझल छन्हि: 
इचना, पाेठी माछक चटनी 
संगे जे खाइ मरूआ रोटी 
नहि‍ बनत रोगी मोटी 
रक्त चाप, मधुमेह, जलोदर 
रामवि‍लास साहु जी चैतावर गबै (लिखै) छथि, बिरहा सुनै छथि, धनरोपनीपर आ किसानीपर कविता कहै छथि। आ ऐ सभ विषयपर हिनकर कविताक जोड़ा साहित्यमे भेटब कठिन। ई सभ विषय मैथिली कविताकेँ विस्तार देलक अछि, आ ओइपर लिखबाक सामर्थ्य रामवि‍लास साहु जीमे छन्हि, ओकर भीतरमे ढुकि कऽ लिखबाक सामर्थ्य रामवि‍लास साहु जीमे छन्हि। 

-गजेन्द्र ठाकुर १८ मइ २०१२

उमेश मण्डल जीक “निश्तुकी” कविता, लघु-कविता, हाइकू/ टनका आ गजलक संग्रह -समीक्षक गजेन्द्र ठाकुर

उमेश मण्डल जीक “निश्तुकी” कविता, लघु-कविता, हाइकू/ टनका आ गजलक संग्रह थिक। मैथिलीक नव तुर मात्र उमेरकेँ प्रतिष्ठा नै देबऽ चाहैए, जँ ओ उमेर अग्रगामी नै होथि। आ से हेबाको चाही, काजक सम्मान छै उमेरक आ पुरानक नै। आ तेँ पुरान आ उमेरगर जँ अग्रगामी छथि तँ तिनका प्रतिष्ठा किए नै भेटन्हु? 

ई टनका देखू:

समस्याँ आप्त 
सोलहनी सजल 
साहि‍त्यआकार 
लेखे पुरान छै आप्तर 
केना एतै यथार्थ 
आ तेँ “बूढ़ाढीमे” लघु कवितामे ओ कहै छथि: 

जीनगी चाह करैए 

कर्मक बाट देखबैए 

कर्मका बाट जँ पकड़ि लेब तखन धुधुएबे करब: 

भुरकी-सँ-भार बनि 

बील बोहरि‍ धरि‍ 

बनि‍-बनि‍ असंतोष 

धोधरि‍ बनि‍ धुधुआ रहल अछि 

मिथिलासँ पड़ाइन भऽ रहल छै। से रहि-रहि कचोटै छन्हि कविकेँ। आ जँ वसन्तक आगमन भऽ जाए तखन तत्व ज्ञान भैये ने जाएत! 

बसंत आएल 

गाम जाएब 

आब एतए 

रहि‍ नै पएब 

बसंतेक खोजमे तँ 

छी बौआएल पड़ाइनसँ:- 

गामक मुँहथरि‍ 
जंगल बनल अछि‍ 
हुनका विचारक फाँट सेहो रहि-रहि देखा पड़ै छन्हि: 
अहाँक गप 
अपन मन 
दुनू मि‍लैए 
मि‍लि‍ दुनू अछि‍ चौचंग 
खोजि‍ रहल अछि‍ वसंत 
मुदा 
बसंतक चि‍ड़ैकेँ 
संग नै राखए चाहै छी हम 
हुनका बुझऽमे आबि रहल छन्हि : 
भकोभन ओइ अन्हाार कोठरीमे 
आ ओ अहाँसँ पूछि रहल छथि: 
तखन शीशामे केना देखाएत 
ओकर चि‍त्र केना आएत? 
आ कियो नै सुनऽ चाहै छथि ओ गीत जतऽ मात्र आ मात्र गाओल जा रहल अछि संस्कृतिक गीत: 

हनहनाइत, भनभनाइत ओइ स्वलरकेँ 
सुनैले नै‍ छथि‍ कि‍यो तैयार 
किए नै सुनै लेल छथि तैयार, कारण अछि डर, दर्दक डरे ओ नै सुनऽ चाहै छथि हनहनाइत, भनभनाइत ओइ स्वञरकेँ। 
किछु अजीब बात सभ हुनका असहज लगै छन्हि: 
आगि‍-पानि‍केँ 
मनक माइनकेँ 
कारण सेहो छै, अगिलहीक बिम्ब देखू: 
सप्पत खाइ काल देवता 
लोकक घर जड़बैकाल मि‍त्ता 
ज्ञान आ ज्ञानी आ ज्ञानक प्रकाश सेहो हुनका कखनो ओझरीमे धऽ दै छन्हि: 
ज्ञानो भऽ जाइत अछि‍ गुलाम 
सांकृत्यायन पड़ै छथि‍ मोन घराम 
लहास जे अहाँकेँ बुझा पड़ैए सेहो आब बाजत: 
आब ओ बाजत 
बजैत-बजैत हँसत 
अहाँक कृति‍पर 
बनल संस्कृ़ति‍पर 

मंगल आ मंगला हुनकर कवितामे सेहो कएक ठाम आएल अछि। विवशताक प्रतीक अछि मंगला! 

कातमे ठाढ़ भऽ मंगला 
आगाँ… 

अपनाकेँ केलक एकोर 

तँ सुखाएल घाटक घटवारी मंगलापर देखू ओकर विवशता: 

सुखलौ घाटक लेतै खेबाइ 

नै देबै तँ देत ई रेबाड़ि।‍ 

सएह भेल मंगला घुरि‍ गेल 

पछि‍मे मुरि‍‍ गेल 

कवि कुम्हरौटक बिम्ब एना अनै छथि: 

काँच माटि‍क मूर्ति जहि‍ना 

ढाॅचा मात्र कहबैए। 

तहि‍ना तँ फूलोसँ बनल फल 

सि‍रखार मात्र कहबैए। 

आ वएह सि‍रखार ने आशा बान्हि ‍-बान्हिि‍ रौद-बसात सहैए 

आ अपने सन आर बटोही सेहो हिनका भेटि जाइ छन्हि: 

हमरे सन इहो सभ बटोही हराएल बाट बढ़ए चाहैए 

कविकेँ कोनो भ्रम नै छन्हि जे जेहने बाट चलब तेहने घाट भेटत आ तखन ओइ घाटपर पानि सेहो तेहने भेटत: 

जहि‍ना चलैक बाट होइ छै 

तहि‍ना तँ बुझैयोक बाट छै 

जेहेन जे बाट चलै छै 

तेहने घाट पहुँचै छै 

ई बाट आ विचार हुनकर एकटा आरो कवितामे अबैत अछि: 

वि‍चारक संग जँ चालि‍ रहल 

घाटपर जाइसँ कि‍यो नै रोकत 

आ नीक वा अधलाह बाट कियो केना धरैए, तहूपर हुनकर लेखनी चलै छन्हि: 

जेहने घरक लोक रहै छै 

घरक मुँहथरि‍ तेहने होइ छै। 

जेहने घरक मुँहथरि‍ रहै छै 

तेहने ने बाटो धड़ै छै 

आ ई बाट हुनकर पछोड़ गजलमे सेहो नै छोड़ै छन्हि: 

गोर मौगी गौरबे आन्हर भेलि‍ अड़ल 

करि‍या बाट बुझाइए चलू घुरि‍ चली 

ओ निराश कखनो नै होइ छथि: 

मरलेमे मारि‍ खा-खा 

मारल बुइध कहबै छी 

आ एकर कारण छै, ओ कहै छथि: 

जहि‍ना पबि‍ते अद्राक पानि‍ 

मुइलहो धार जीबै छै। 

भलहि‍ं जीतहा धार बीच 

तीन-मसुआ ओ कहबै छै 

आ ऐ आशा-आक्रोश आ निराशाक मध्य ओ लिखै छथि: 

छोड़ि‍ देने टूटि‍ जाएत समाज 

अपन उमेश जोड़तै तँ चहकतै लगैए ई‍। 

उमेश मण्डल जे किछु कहै छथि निश्तुकी कहै छथि, घुरछी, ओझरी सभटा चारू कात पसरल छन्हि। मुदा सोझराबै छथि, ओझराबै नै छथि। 

 --गजेन्द्र ठाकुर १९ मइ २०१२

“माँझ आंगनमे कतिआएल छी” मुन्नाजीक रुबाइ आ गजल संग्रह- समीक्षक गजेन्द्र ठाकुर

“माँझ आंगनमे कतिआएल छी” मुन्नाजीक रुबाइ आ गजल संग्रहक नाम अछि। कतिआएल आ सेहो माँझ आंगनमे! की कबीरक उलटबासीक प्रभाव अछि ई आकि गजलक स्वभाव अछि ई? नहिये ई कबीरक उलटबासीक प्रभाव अछि नहिये ई गजलक स्वभाव अछि, ई एकटा यथार्थ अछि। मुन्नाजी सन कतेको लोक कतिआएल छथि, प्रतिभा अछैत हेराएल छथि। मुदा गजलकार सभटा दोख अपनेपर लऽ लै छथि। 

आब तँ माँझ आँगनमे कतिआएल छी 

अपने चालिसँ आब बेरा गेलहुँ हम 

आ सएह कारण अछि जे ओ नोरक सुख भोगऽ लागै छथि। 

नोर तँ खसैए मुदा मजा सन लगैए केहन नीक प्रेमक दुख लेलहुँ हम 

बड़का खाधिमे खसै छथि आ तहू लेल अपनेकेँ दोखी मानै छथि: 

छोटको ठेससँ नै सबक लेलहुँ हम तँए बड़का खाधिमे खसि गेलहुँ हम 

तँ की गजलकार प्रेमक महत्व बिसरि गेल छथि, नै प्रेम तँ सभकेँ चाही। 

सभ उमेर वर्गकेँ प्रेम चाही 

मरितो धरि कुशल-छेम चाही 

आ हिनका जँ कोस दू-कोस मात्र चलबाक रहितन्हि तखन ने, हिनका तँ बहुत आगाँ बढ़बाक छन्हि तेँ प्रेम चाही। 

डाहसँ पहुँचब कोस-दू कोस 

आगू बढ़बा लेल तँ प्रेम चाही 

आ से सभ ठाम। एकटा हमर संगी छल, एकटा परीक्षामे टॉप केलक तँ बाजल- नै कम्पीट करै छी तँ नै करै छी, आ करै छी तँ टॉप करै छी। ओ गजलकार नै छल जँ रहिते तँ अहिना लिखितए: 

बदरी लादल रहै कोनो बात नै जदि बरसी तँ बरिसात बनि कऽ 

आ नजरि-नजरिक फेर आ हाफ ग्लास फुल ई दुनूटा अवधारणा ऐ रूपमे ओ राखै छथि: 

नजरि उठा कऽ देखबै तँ खाली बुझाएत ई दुनियाँ 

नजरि गरा कऽ देखबै तँ सभ देखाएत ई दुनियाँ 

समालोचना आ विरोध दुनूकेँ गजलकार नीक मानै छथि। 

पक्षधरसँ राखू अपनाकेँ बचा कऽ 

विपक्षीक सभ बातकेँ नै तीत बुझू 

महगाइसँ लोक बेकल अछि मुदा तकरा लेल झुमैत मचानक बिम्ब देखू: 

महगाइसँ खूने नै हड्डियो सुखाइए 

आब झुलैत मचान सन लगैए लोक 

आ ई उलटबासी देखू, बिम्ब नव, भावना शाश्वत: 

हम तँ घूर जड़ेलौ गर्मी मासमे 

मिझाएल आगिसँ पसाही कहियो 

ई कोन गोष्ठी छी जे अछि कोन पत्रिकाक प्रायोजित चिट्ठी छपबाक राजनीति सन, ई रुबाइ देखू: 

मोन भए उठल दुखित होहकारीसँ 

उठि दर्शक भागल मारामरीसँ 

प्रायोजक तँ पथने रहल कान अपन 

कर्ता देखार भेला जतियारीसँ 

मुदा बाढ़िक विषय जँ मैथिली गजलक अंग नै बनए तँ बुझू जे गजलकार समाजसँ कतिआएल छथि। मुदा से नै अछि। 

धार एखन धरि तँ उफानपर अछि 

लोक ताका-ताकी करैत बान्हपर अछि 

आब पड़ाइन घटल अछि, मिथिलासँ पड़ाइन। बाहरी लोक बिहारीकेँ मजदूर आ श्रमिकक पर्यायवाची मानि लेने छथि। तहूपर गजलकारक कलम चलल अछि। 

बिहारक सिरखारी बदलि गेल सन लगैए आब 

श्रमिक घटलासँ कंपनी-मालिक लगै बिहारी जकाँ 

मुन्नाजीक गजल आ रुबाइ स्वच्छन्द रूपसँ बमकोला जेकाँ बहल अछि। शेरक स्वभाव होइ छै जे जँ ओकरा नेकासँ कहल जाए तँ आह-बाह लोक करिते अछि। मैथिलीमे गजल-रुबाइ जइ तरहेँ प्रसारित भऽ रहल अछि से देखि कऽ यएह लागि रहल अछि जे जतेक ई विधा अपनाकेँ पसारि रहल अछि तइसँ बेशी मैथिली लाभान्वित भऽ पसरि रहल अछि। 

--गजेन्द्र ठाकुर १९ मइ २०१२

मुन्नाजीक मैथिली विहनि कथाक संग्रह “प्रतीक” - समीक्षक गजेन्द्र ठाकुर

मुन्नाजीक मैथिली विहनि कथाक संग्रह “प्रतीक” विहनि कथाक प्रतीकात्मकताक प्रतीक बनि गेल अछि। बिरारसँ विहनि उपारि धान आ मेरचाइ रोपबाक प्रक्रिया ऐ संग्रहक सभ कथा सभमे देखमामे आओत। तेँ ई छिटुआ नै रोपुआ धानक खेती बनि गेल अछि आ तीन मोनक कट्ठा सभ गोटे सुनैत होएब, मुदा एतऽ देखब। विहनि कथा हास्य कणिका नै अछि, ई कथाक जड़ि अछि बीआ अछि, छिटुआ धानसँ भेल पौध आ विहनिसँ भेल पौधमे बड्ड अन्तर छै। छिटुआ धान फौदाइ नै छै। से हास्य कणिका बिठुकट्टा होइ छै, ऐ मे हँसी अबै छै, मुदा ओ छिटुआ धान जेकाँ अछि। दोसर बेर ओइ बिठुकट्टा कथाकेँ, हास्य कणिकाकेँ सुनब तँ ने हँसिये लागत आ नहिये छगुणते। तखन जँ बिनु सिझने विहनि कथा लिखाएत, बिनु सिझेने विहनि कथा लिखब तँ लतीफा बनबे टा करत। आ हास्य कणिका विहनि, लघु आ दीर्घ कथा वा उपन्यासमे लेखकीय सामर्थ्यक अनुसार प्रयुक्त होइत रहल अछि आ होइत रहत। 

मुदा उसना धानसँ बिराड़मे विहनि नै बहराएत। से बिनु उसीनने बीआ बाउग करऽ पड़त। बिनु उसीनने सिझाबऽ पड़त आ तइ लेल बेशी मेहनति करऽ पड़त। आ बीआ छीटब तैयो सभ धानसँ विहनि नै बहराएत किछु सँ नहियो बहराएत। से विहनि कथाकेँ सफल हेबाक प्रतिशत कम छै, लघुकथाक सफलताक प्रतिशत कने बेशी छै, दीर्घ-कथा आ उपन्यासक सफलताक प्रतिशत आर बेशी छै। मुदा उपन्यास झंझटिया काज छै, मोन घोर कऽ दै छै, बेशी समए लागै छै। विहनि कथा धाँइ-धाँइ लिखाइ छै। मुदा जहिना कविता लेल आवेग चाही तहिना विहनि कथा लेल, नै तँ ने धाँइ-धाँइ लिखेबे करत आ पद्यक गद्य आ गद्यक पद्य बनबाक आशंका सेहो रहत। सभ उपन्यासकार कतेक रास विहनि उपाड़ि कऽ सजबैए, उपन्यास गद्य छिऐ मुदा ओइमे कोनो पात्र जँ गीत गाबऽ लागए तँ ओकरा अहाँ रोकि देबै? जे उपन्यासकार रहैए ओ विहनि देखि उपन्यासक धनखेती देखऽ लगैए, कखनो ओ विहनि कथा लिखियो दैए, फेर लोभ संवरण नै भेलासँ ओइ विहनिक प्रयोग उपन्यासमे, दीर्घकथामे, लघुकथामे सेहो करैए। 

तखन मुन्नाजीक विहनि कथाक की विशेषता। मुन्नाजी हमर पड़ोसी सुरजु भाइ छथि, ओ बिराड़मे जतेक बीआ लगबै छथि ओकर दशो प्रतिशत अपन खेतमे नै लगा पबै छथि। बाढ़िक इलाका छै से लोकक खेत पड़ल रहि जाइ छै बिनु विहनिक। से सुरजू भाइक पड़ोसी ओइसँ लाभ उठबै छथि कारण बाढ़िमे कखनो काल तीन-तीन बेर धनरोपनी होइ छै, एक बेर रोपू बाढ़ि आएल, दोसर बेर रोपू फेर बाढ़ि आएल। आ सुरजू भाइ छथि तेँ लोक निश्चिन्त रहैए। आ मुन्नाजीक विहनि कथा सेहो निश्चिन्त करैए। “रेवाज” विहनि कथा लिअ। गाम घरमे मसोमातकेँ लोक डाइन कहै छै मुदा मुइलाक बाद घराड़ी लेल ओकरा आगि देबा लेल उपरौंझ होइ छै। एतऽ मुदा विहनि लेल जे बीआ छीटल गेल छै से कने उच्च स्तरक छै। एतऽ मृतककेँ बेटा नै छै मुदा पत्नी आ बेटी छै। से जखन मृतकक भाइ कोहा उठबऽ चाहैए तँ विधवा ओकरा रोकै छै आ बेटीकेँ कोहा उठबैले कहै छै। आ संग के देत ऐ नव रेवाजमे, जे आइयेसँ प्रारम्भ भेल अछि। तखन उत्तरो भेटैए- निपुतराहा सभ। 

तहिना “कमरुनिसा” विहनि कथा अछि। हसीना मंजिल सन एकटा आरो श्रेष्ठ उपन्यास ऐ विहनि कथा (सीड स्टोरी)सँ मुन्नाजी नै बना सकै छथि की? कमरुनिसाक पिता रहमान। लहठीक काज जेकाँ दम्मा सेहो ओकर सभक पुश्तैनी वौस्त छलै। कमरुनिसाक अब्बा-अम्मीक जान ई दम्मा लेलकै आ फेर कमरुनिसा… “जिया जरए सगर राति”मे एड्सक समस्या आ लिविंग रिलेशनक चर्च अछि तँ “दियाद”मे पनहीक ऊपरसँ चिक्कन चुनमुन हेबाक मुदा नीचाँसँ खलओदार केने जेबाक विवरण देल गेल अछि। “नपना” मे स्त्रीक काजक स्वरूप तय कएल गेल छै। अखनो जनगणना कालमे सरकार घरक काजकेँ आमदनीमे नै जोड़ैत अछि, आ ऐ कथामे अन्त होइए जखन एकटा स्त्रीक चर्च अबैए जे नोकरीयो करैए आ घरक काजो। 

आइ काल्हि जखन लोकक जिनगी गति पकड़ि लेने अछि तखन विहनि कथाक महत्व बढ़ि गेल अछि। मुन्नाजी विहनि कथा लेल समर्पित छथि आ ई संग्रह हुनकर ऐ समर्पणक गुणात्मक अभिव्यक्ति छन्हि। --गजेन्द्र ठाकुर १९ मइ २०१२

Thursday, May 17, 2012

जगदीश प्रसाद मण्डलक नाटक "झमेलि‍या वियाह" - समीक्षक रवि भूषण पाठक


जगदीश प्रसाद मण्‍डल जीक तेसर नाटक। ऐ सँ पहिले मिथिलाक बेटीकम्‍प्रोमाइज। तीनू नाटक अपन औपन्‍यासिक विस्‍तार आ काव्‍यात्‍मक दृष्टिसँ परिपूर्ण। लेखक समकालीन विश्व आ गद्यक पारस्‍परिकतासँ नीक जकाँ परिचित छथि, तँए हिनकर संपूर्ण रचना-संसारमे समकालीनताक वैभव पसरल अछि, जत्ते वैचारिक, ओतबे रूपगत। समकालीनताक प्रति हिनकर झुकाव झमेलि‍या वियाहक एकटा विशेष स्‍वरूप दैत छैक। बारह सालक नेनाक बि‍आहक ओरियाओन करैत माएबापक चित्र जत्ते हँसबै छैक, माएक बेमारी ओतबे सुन्न। लेखकक रचना संसारमे काल-देवताक लेल विशेष जग्‍गह, तँए ई नाटक प्रहसनक प्रारंभिक रूपगुण देखाबितो किछु आर अछि। पहिले दृश्‍यमे सुशीला कहैत छथिन राजा दैवक कोन ठेकान..., अगर दुरभाखा पड़तै तँ सुभाखा किअए ने पड़ै छै...। आ राजा, दैवक कर्तव्‍यक प्रति ई उदासीनताक अनुभव समस्‍त आस्तिकता आ भाग्‍यवादिताकेँ खंडित करैत अछि।

सभ नाटकमे भरत मुनिकेँ खोजनाइ जरूरी नइ, ओना उत्‍साही विवेचक अर्थ-प्रकृति, कार्यावस्‍था आ संधिक खोज करबे करता, आ कोनो तत्‍व नइ मिलतनि‍ तँ चिकडि़ उठता। यद्यपि लेखकक उद्देश्‍य स्‍पष्‍ट अछि। शास्‍त्रीय रूढ़ि‍ जेनानान्‍दी पाठ, मंगलाचरण, प्रस्‍तावना, भरतवाक्‍यक प्रति लेखक कोनो आकर्षण नइ देखबैत छथिन। एतबे नइ पाश्चात्‍य नाट्य सिद्धांतकेँ हूबहू (देकसी) खोजएबलाकेँ आलस सेहो लागतनि‍। तँए झमेलिया  वियाह’ नाटकमे स्‍टीरियोटाईप संघर्ष देखबाक ईच्‍छुक भाय लोकनि कनेक बचि बचा के चलब। विसंगति आ समस्‍या नाटकक फार्मूलाकेँ नाटकमे खोजएबलाकेँ सेहो झमेला बुझा सकैत छनि, किएक तँ लेखक कोनो फार्मूलाकेँ स्‍वीकारि के नइ लिखैत छथिन ।
सीधा-सीधी अंक-बि‍हीन झमेलिया  वियाह’ नओ गोट दृश्‍यमे बँटल अछि: अनेक दृश्‍यस्‍य एकांकी। ने बहुत छोट आ ने नमहर। तीन चारि घंटाक बिना झमेलाकेँ झमेलिया वियाह। एकेटा परदा या बॉक्‍स सेटपर मंचित होमए योग्‍य। मात्र घर वा दरबज्‍जाक साज-सज्‍जा। तेरहटा पुरुष आ चारिटा स्‍त्री पात्रक नाटक। छोट-छोट रसगर संवाद, संघर्ष आ उतार-चढ़ावक संभावनासँ युक्‍त। ने केतौ नमहर स्‍वगत ने नमहर संवाद। असंभव दृश्‍य, बाढि़, हाथी-घोड़ा, कार जीपक कोनो योजना नइ। संवादक द्वारा विभिन्‍न बरियाती या यात्राक कथासँ जिज्ञासा आ आद्यांत आकर्षण। क‍थामे चैता केर रमणीयता आ मर्यादा, तँए जोगीराक दिशाहीनता आ उद्दाम वेग नइ भेटत। गंभीर साहित्‍य सर्वदा अपन समैक अन्‍न, खून पसेनाक गंधसँ युक्‍त होइत अछि। आ झमेलिया वियाह सेहो पावनि-तिहार, भनसा घरक फोड़न-छौंक, सोयरी, श्‍मशान आ पकमानक बहुवर्णी गंधसँ युक्‍त अछि, एकदम ओहिना जेना पाब्‍लो नेरूदा विभिन्न कोटिक गंधकेँ कवितामे खोजैत छथिन।

झमेलिया  वियाह’क सामाजिक आ सांस्‍कृतिक आधारपर कनेक विचार करू। ई ओइ ठामक नाटक अछि, जतए कर्मपर जन्‍म, संयोग आ कालदेवताकेँ अंकुश छैक, जइठामक लोक मानैत छथिन जे कखनो मुँहसँ अवाच कथा नै निकाली। दुरभक्‍खो विषाइ छै। सामाजिक रूपेँ ओ वर्ग जेकर हँसी-खुशी माटिक तरमे तोपा गेल अछि। लैंगिक विचार हुनकर ई जे पुरुख आ स्‍त्रीगणक काज फुट-फुट अछि। आ विकासक उदाहरण ई कि जइठीन मथ-टनकीक एकटा गोटी नै भेटै छै तइठीन साल भरि पथ-पानिक संग दवाइ खाएब पार लागत?
मुदा जगदीशजी केवल सातत्‍य आ निरंतरताक लेखक नइ छथिन, परिवर्तनक छोट-छोट यतिपर अपन कैमरासँ फ्लैश दैत रहैत छथिन। तँए यथास्थितिवादक लेल अभिशप्‍त होइतो यशोधर बुझैत छथिन जे मनुक्‍खक मनुखता गुणमे छिपल छै नै कि रंगमे। आ सुशीला सामाजिक स्थितिपर बिगड़ैत छथिन कि विधाताकेँ चूक भेलनि जे मनुक्‍खोकेँ सींघ नांगरि किअए ने देलखिन। आ ई नाटक कालदेवताक ओइ खंडसँ जुड़ैत अछि जतए पोता श्‍याम तेरह के थर्टिन आ तीन के थ्री कहैत छथिन। ऐठाम अखबार आबैत छैक आ राजदेव देशभक्तिक परिभाषाकेँ विस्‍तृत बनेबाक लेल कटिबद्ध छथिन। खेतमे पसीना चुबबैत खेतिहर, सड़कपर पत्‍थर फोड़ैत बोनिहार, धारमे नाव खेबैत‍ खेबनिहार सभ देश सेवा करैत अछि, आ राजदेव सभकेँ देशभक्‍त मानैत छथिन।

झमेलिया  वियाह’क झमेला जिनगीक स्‍वाभाविक रंग परिवर्तनसँ उद्भूत अछि, तँए जीवनक सामान्‍य गतिविधिक चित्रण चलि रहल अछि कथाकेँ बिना नीरस बनेने। नाटकक कथा विकास बिना कोनो बिहाड़ि‍क आगू बढ़ैत अछि, मुदा लेखकीय कौशल सामान्‍य कथोपकथनकेँ विशिष्‍ट बनबैत अछि। पहिल दृश्‍यमे पति-पत्नीक बातचितमे हास्‍यक संग समए देवताक क्रूरता सानल बुझाइत अछि। दोसर दृश्‍यमे झमेलिया अपन स्‍वाभाविक कैशोर्यसँ समैकेँ द्वारा तोपल खुशीकेँ खुनबाक प्रयास करैत अछि। पहिल दृश्‍यमे व्‍यक्ति परिस्थितिकेँ समक्ष मूक बनल अछि, आ दोसर दृश्‍यमे व्‍यक्तित्‍व आ समैक संघर्ष कथाकेँ आगू बढ़बैत‍ कथा आ जिनगीकेँ दिशा निर्धारित करैत अछि। तेसर दृश्‍य देशभक्ति आ विधवा विवाहक प्रश्नकेँ अर्थ विस्‍तार दैत अछि, आ ई नाटकक गतिसँ बेशी जिनगीकेँ गतिशील करबाक लेल अनुप्राणित अछि ।
चारिम दृश्‍यमे राधेश्‍याम कहैत छथिन जे कमसँ कम तीनक मिलानी अबस हेबाक चाही। आ, लेखक अत्‍यंत चुंबकीयतासँ नाटकीय कथामे ओइ जिज्ञासाकेँ समाविष्‍ट कऽ दैत छथिन कि पता नइ मिलान भऽ पेतै आ कि‍ नइ। ई जिज्ञासा बरियाती-सरियातीक मारिपीट आ समाजक कुकुड़ चालिसँ निरंतर बनल रहैत छैक। आ पांचम दृश्‍यमे मिथिलाक ओ सनातन खोटिकरमा पुराण। दहेज, बेटी, बि‍आह आ घटकक चक्रव्‍यूह! आ लेखकक कटुक्ति जे ने केवल मैथिल समाज बल्कि समकालीन बुद्धिजीवी आ आलोचनाक लेल सेहो अकाट्य अछि: कतए नै दलाली अछि। एक्‍के शब्‍दकेँ जगह-जगह बदलि-बदलि सभ अपन-अपन हाथ सुतारैए ।
आ घटकभायकेँ देखिअनु। समैकेँ भागबा आ समैमे आगि लगबाक स्‍पष्‍ट दृश्‍य हुनके देखाइ छनि। अपन नीच चेष्‍टाकेँ छुपबैत बालगोविन्‍दकेँ एक छिट्टा आर्शीवाद दैत छथिन। बालगोविन्‍दकेँ जाइते हुनकर आस्तिकताक रूपांतरण ऐ बि‍न्‍दुपर होइत अछि भगवान बड़ीटा छथिन। जँ से नै रहितथि तँ पहाड़क खोहमे रहैबला केना जीबैए। अजगरकेँ अहार कतए सँ अबै छै। घास-पातमे फूल-फड़ केना लगै छै....... बातचितक क्रममे ओ बेर-बेर बुझबैक आ फरिछाबैक काज करैत छथि। मैथिल समाजक अगिलगओना। महत्‍व देबै तँ काजो कऽ देत नइ तँ आगि लगा कऽ छोड़त !!!!!

छठम दृश्‍यमे बाबा आ पोतीक बातचित आ बरियाती जएबा आ नइ जएबाक औचित्‍यपर मंथन। बाबा राजदेव निर्णय नइ लऽ पाबै छथिन। बरियाती जएबाक अनिवार्यतापर ओ बिच-बिचहामे छथिन छइहो आ नहियो छै। समाजमे दुनू चलै छै। हमरे बि‍आह मे मामेटा बरियाती गेल रहथि। मुदा खाए, पचबै आ दुइर होइक कोनो समुचित निदान नइ भेटैत छैक। बरियाती-सरियातीक व्‍यवहार शास्‍त्र बनबैत राजदेव आ कृष्‍णानंद कथे-बि‍हनिमे ओझरा कऽ रहि जाइत छथि। दस बरिखक बच्‍चाकेँ श्राद्धमे रसगुल्‍ला मांगि-मांगि कऽ खाइबला हमर समाज बि‍आहमे किएक ने खाएत? तँए कामेसर भाय निशाँमे अढ़ाय-तीन सए रसगुल्‍ला आ किलो चारिएक माछ पचा गेलखिन आ रसगुल्‍लो सरबा एतए ओतए नइ आंतेमे जा नुका रहल !!!

सातम दृश्‍य सभसँ नमहर अछि, मुदा बि‍आह पूर्व वर आ कन्‍यागतक झीका-तीरी आ घटकभाय द्वारा बरियाती गमनक विभिन्‍न रसगर प्रसंगसँ नाटक बोझिल नइ होइत छैक। आ घटक भायपर धि‍यान देबै, पूरा नाटकमे सभसँ बेशी मुहावरा, लोकोक्ति, कहबैकाक प्रयोग ओएह करैत छथिन। मात्र सातमे दृश्‍यकेँ देखल जाए खरमास (बैसाख जेठ) मे आगि-छाइक डर रहै छै (अनुभव के बहाने बात मनेनइ)..... पुरूष नारीक संयोगसँ सृष्टिक निर्माण होइए (सिद्धांतक तरे धि‍यान मूलबि‍ंदुसँ हटेनइ)...... आगूक विचार बढ़बैसँ पहिने एक बेर चाह-पान भऽ जाए (भोगी आ लालुप समाजक प्रतिनिधि) ...... जइ काजमे हाथ दइ छी ओइ काजकेँ कइये कऽ छोड़ै छी (गर्वोक्ति)....... जिनगीमे पहिल बेर एहेन फेरा लागल (कथा कहबासँ पहिले धि‍यान आकर्षित करबाक सफल प्रयास).... खाइ पीबैक बेरो भऽ गेल आ देहो हाथ अकड़ि‍ गेल...... कुटुम नारायण तँ ठरलो खा कऽ पेट भरि लेताह मुदा हमरा तँ कोनो गंजन गृहणी नहिये रखतीह। (प्रकारांतरसँ अपन महत्‍व आ योगदान जनबैत ई ध्‍वनि जे हमरो कहू खाए लेल)

आठमो दृश्‍यमे बालगोविन्‍द, यशोधर, भागेसर, घटकभाय बि‍आह आ बरियातीकेँ बुझौएल के निदान करबा हेतु प्रयासरत् छथि, आ लेखक घटकभायकेँ पूर्ण नांगट नइ बनबैत छथिन, मुदा ओकर मीठ-मीठ शब्‍दक निहितार्थकेँ नीक जकाँ खोलि दैत छथिन। ऐ दृश्‍यमे बाजल बात, मुहावरा, लोकोक्ति आ प्रसंग, उदाहरणक बले ओ अपन बात मनबाबए लेल कटिबद्ध छथिन। हुनकर कहबैकापर धि‍यान दिओ- जमात करए करामात..., जाबत बरतन ताबत बरतन....., नै पान तँ पानक डंटियेसँ....., सतरह घाटक सुआद......., अनजान सुनजान महाकल्‍याण।

मुदा घटकभायकेँ ऐ सुभाषितानिक की निहितार्थ? ई अर्थ पढ़बाक लेल कोनो मेहनति‍ करबाक जरूरी नइ। ओ राधेश्‍यामकेँ कहै छथिन जखन बरियाती पहुंचैए तखन शर्बत ठंडा गरम, चाह-पान, सिगरेट-गुटका चलैए। तइपर सँ पतोरा बान्‍हल जलपान, तइपर सँ पलाउओ आ भातो, पूड़ि‍ओ आ कचौडि़यो, तइपर सँ रंग-बि‍रंगक तरकारियो आ अचारो, तइपर सँ मिठाइयो आ माछो-मासु, तइपर द‍हियो, सकड़ौड़ि‍ओ आ पनीरो चलैए।

नाटकक नओम आ अंतिम दृश्‍य। बाबा राजदेव आ पोती सुनीताक वार्तालाप, आखिर ऐ वार्तालापक की औचित्‍य? जगदीश जी सन सिद्धहस्‍त लेखक जानै छथिन जे बीसम आ एकैसम सदीक मिथिला पुरुषहीन भऽ चुकल छैक। यात्री जीक कवितापर विचार करैत कवयित्री अनामिका कहैत छथिन बिहारक बेशी कनियाँ विस्‍थापित पतिगणक कनियाँ छथि। सिंदूर तिलकित भाल ओइ ठाम सर्वदा चिंताक गहींर रेखाक पुंज रहल छैक।
....भूमंडलीकरणक बादो ई स्थिति अछि जे मिथिला, तिरहुत, वैशाली, सारण आ चंपारण यानी गंगा पारक बिहारी गाम सभ तरहेँ पुरुषबि‍हीन भऽ गेल छैक। ......सभ पिया परदेशी पिया छथि ओइठाम। गाममे बचल छथि वृद्धा, परित्‍यक्‍ता आ किशोरी सभ। एहन किशोरी, जेकर तुरते तुरत बि‍आह भेलै या फेर नइ भेल होए, भेलए ऐ दुआरे नइ जे दहेजक लेल पैसा नइ जुटल हेतैक।बि‍आह आ दहेजक ऐ समस्‍याक बीच सुनीताकेँ देखल जाए। एक तरहेँ ओ लेखकक पूर्ण वैचारिक प्रतिनिधि अछि। यद्यपि कखनो-कखनो राजदेव, कृष्‍णानंद आ यशोधर सेहो लेखकक विचार व्‍यक्‍त करैत छथिन। सुनीता, सुशीला आ राजदेव मिथिलाक स्‍थायी आबादी, आ घटकभाइक बीच रहबाक लेल अभिशप्‍त पीढ़ी। कृष्‍णानंद सन पढ़ल-लिखल युवकक स्‍थान मिथिलाक गाममे कोनो खास नइ। आ लेखक बिना कोनो हो-हल्‍ला केने नाटकमे ऐ दुष्‍प्रवृत्तिकेँ राखि देने छथि। जीवन आ नाटकक समांतरता ऐठाम समाप्‍त भऽ जाइत छैक आ दूटा अर्द्धवृत्‍त अपन चालि स्‍वभावकें गमैत जुड़ि पूर्णवृत्‍त भऽ जाइत अछि।

रामभरोस कापड़ि ‘भ्रमर’क उपन्यास ‘घरमुहाँ’ – प्रभाव आ प्रतिक्रिया- समीक्षक डा.राजेन्द्र विमल



कार्य–कारण–श्रृंखलामे सुगुम्फित ओहि गद्य कथानककेँ उपन्यास कहल जाइत अछि, जाहिमे अपेक्षाकृत अधिक विस्तारसं जीवने–जगतमे अनुभव कएल यथार्थकेँ कल्पनासँ रङि कए रसात्मक÷विचारोत्तेजक रुपमे प्रस्तुत कएल जाइछ । मैथिलीक ख्यातनामा आख्यानकरि श्री रामभरोस कापड़ि ‘भ्रमर’क पहिल उपन्यास ‘घरमुहाँ’ नेपालक मधेस–आन्दोलनसँ उपजल उमड़ल जनआकांक्षा, मोहभंग, विकृति, पीड़ा, भावनात्मक उद्वेलन, विक्षोभ आ जटिलताकें घोर यथार्थपरक चित्रावली उरेहैत समन्वय दर्शनसंग मर्मस्मर्शी इति पबैत अछि । 
आन्दोलन जखन एक गोट ऐतिहासिक उँचाई ल’ रहल होइत अछि तँ ओहिमे आन्दोलनकारीक छदम श्वेत भेष द्वारा सामाजिक प्रतिष्ठाक नकली खोल ओढ़बामे सफल गुन्डाक सरदार कामेश्वर–सन आपराधिक मनोवृत्तिक व्यक्ति सचक निरन्तर प्रवेश होबए लगैत छैक । हत्या, अपहरण, आतंक आ डर–धमकी द्वारा ई वर्ग खास कए पहाड़ी समुदायसँ पैसाक उगाही करैत अछि । अपन अधिकार, पहिचान आ विकसित मुद्दाक एहि विराट जनक्रान्तिमे शहादत दैत युवकसभक प्रत्येक दिन लहासपर लहास खासि रहल छै आ ओहर ई लुटेरा–तत्व पहाड़ीक दोकान सभमे आगि लगा रहल अछि, सामान लूटि रहल अछि, ओकरा सभक घरपर पाथर फेकि–आतङ्क पसारि रहल अछि । आतङ्कभरल एहि वातावरणमे पहाड़ी होइतो धोतीकुर्ताधारी मास्टर रमेश उपाध्याय अपना घरमे डरे दबकल रहैत छथि । मोन तँ मास्टरो साहेबक होइ छैन्हि जे – अपन मधेसी मित्र जगमोहन अधिकारी जेकाँ जुलुसमे जा जोर–जोरसँ नारा लगा आन्दोलनकेँ समर्थन दिऐक, मुदा सोचै छथि –“जे उन्माद एखन युवा सभमे छै ओ की हमर (पहाड़ी) अनुहारकेँ पचा सकत ?” अदंकसँ भरल मास्टर साहेबकेँ अपन घर ल’ अनबाक विचार जगमोहनकेँ होइत छन्हि, मुदा मास्टर रमेश एहि दुआरेँ अपन मधेश–आन्दोलनक अगुआ मित्र जगमोहनक घर जाएसँ अस्वीकार कए दैत छथि जे कलहु आन्दोलन कमजोर ने पड़ि जाइक । १ जून २००७, २५ जुलाई २००७, २८ जुलाई २००७, ५ अगस्त २००७ क वार्ता असफल भेलाक बाद ३० अगस्त २००७क’ २६ बूँदापर सहमति होएब मुदा कायान्वयनमे आनाकानीसँ आन्दोलनक फेर उग्र लपट ऊठब – ऐतिहासिक दस्तावेज अछि, जे उपन्यासमे प्रस्तुत भेल अछि । 
मास्टर रमेश उपाध्यायक विपत्तिक तमिस्रा अओर सघन तखन अओर सघन भ’ जाइत छैन्हि जखन हुनका पता चलैत छैन्हि जे हुनकर बेटी किरण दछिनबरिया टोलक कामेश्वरक बेटा राजीवसँ पे्रम करैति अछि । ताबत ई ककरो ने बूझल छैक जे गामक सम्पन्न आ सम्भ्रान्त मानल जाएबला व्यक्तित्व कामेश्वर गाममे व्याप्त हत्या, अपहरण, चन्दा–आतंक आदिमे संलग्न गिरोहक मुख्य सूत्रधार आ खलनायक अछि । मास्टर महाविपत्तिक समुद्रमे उबडुब कैए रहल छथि कि बेटी किरणक अपहरण भए जाइ छैन्हि आ दश लाख टाका फिरौतीक लेल फोनसँ दिन–राति धमकी आबए लगैत छैन्हि । मास्टर अपन सम्पूर्ण सम्पत्ति बेचिकए विस्थापित होएबाक लेल बाध्य छथि ओमहर कामेश्वरक एकलौता बेटा राजीव अपन बापक कुकृत्यसँ परिचित भ’ जाइत अछि आ मायक माध्यमसँ किरणक मुक्तिक लेल दबाब बनबैत अछि । कामेश्वरकेँ ईं जानि ग्लानि होइत छैक जे ई उएह किरण थिक जकरा पुतहु बना घर अनबाक मोन हुनक परिवार बना चुकल अछि । बसमे चढ़ि चुकल मास्टर रमेश उपाध्यायक ओकर परम मित्र जगमोहन आ अपहरणकारी कामेश्वर गाम घुरा अनबामे सकल होइत छथि । 
आख्यानकार ‘भ्रमर’ अपना समयक प्रामाणिक खिस्सा आबएबला पीढ़ी–दर–पीढ़ीधरि सुनएबामे उत्सुक छथि । तेँ प्रस्तुत उपन्यास मूक इतिहासक मुखर सहोदर भए गेल अछि । राजनैतिक घटनाक्रमक धरातलपर कल्पनाक फट्ठा, मृत्तिका, सन्ढी, स’न आदिसँ समकालीन मधेसक जीवन्त मूर्ति तैयारक’ सामाजिक सम्बन्ध–बन्धक रागमयताक रंग ढ़ेउरल गेल अछि जे हृदयहारी अछि । उपन्यास ऐतिहासिक महत्वक दाबेदार एहू कारणें अछि जे ई पहिल नेपालीय मैथिली उपन्यास थिक जे समकालीन राजनैतिक घटनाक्रमपर आधारित अछि । 
रमेश उपाध्याय, जगमोहन, कामेश्वर, राजीव, किरण, बन्ठा, लुखिया आदि सभ वर्गीय प्रतिनिधि पात्र अछि । सम्बादमे स्वाभाविकता आ सजीवता छैक । भाषाशैलीक नाटकीयता आ चित्रात्मकताक कारण उपन्यास आदिसँ अन्तभरि सिनेमाक रीलजेकाँ चलैत अछि, जे पाठककेँ आरम्भसँ अन्तधरि बन्हने रहैत अछि । पहाड़ी–मधेसीक एकता संबर्धनक उद्देश्यसँ प्रणित एहि उपन्यासक यात्रा उबड़खाबड़, पहाड़–जंगल, खुरपेड़ियाक जटिल यात्रा नहि, सोझ–सपाट मैदानक सरल–सरस यात्रा थिक जे सरसराकए अपन गन्तव्यधरि पहुँचैत अछि । तेँ उपन्यासक संरचनामे पेँच–पाँच आ ओझराहटि नहि अछि । मधेस–मिथिलाक आम लोकक भाषामे प्रयुक्त ‘लल्हका’, ‘लभका’, ‘बढ़का’, ‘खुर्सीं’ आदि शब्दक सचेत उपयोग उपन्याक भाषाकेँ सहज स्वाभाविकता आ अभिनवता प्रदान करैत अछि । आख्यानकार श्री ‘भ्रमर’क ई सद्यःजात कृति नेपालीय मैथिली उपन्यास साहित्यक एक गोट उपलब्धि थिक, ताहिमे सन्देह नहि ।