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Friday, July 13, 2012

पोथी समीक्षा: इंद्रधनुषी अकास:: समीक्षक डॉ. कैलाश कुमार मि‍श्र

हम मानव वि‍ज्ञान एवं कलाक शोध छात्र छी। शोध छात्रक भाषा तँ प्राणहीन होइत छैक। उपमा, अलंकार, सौन्दनर्य, स्वलप्न आदि‍ शोधछात्रक हेतु जेना कुनो बाहरी परि‍वेशक वस्तुभ होइक। मुदा छी हम घोर आशावादी आ पॉजीटीव। शायद अपन अही पॉजि‍टीव सोच आ दृष्टि ‍कोणक कारणे हम परमादरनीय जगदीश प्रसाद मण्ड ल केर कवि‍ता संग्रह इंद्रधनुषी अकास केर आमुख लि‍खबाक जि‍म्माह लऽ लेलहुँ। मण्डडलजी वि‍चारसँ प्रगति‍शील आ सभ तरहक लोक-वि‍चारधारा, परिस्थिखतित‍ आ परि‍वेशमे सामंजस्यल स्था पि‍त करएबला साहि‍त्याकार छथि‍। अल्ट रनेटि‍व डेवलपमेन्टष आ इकोलॉजि‍कल कन्सेतप्ट्केँ स्थाेनीयताक दृष्टि्‍कोणमे बुझबाक आ अपन ज्ञान गंगाकेँ कथा, उपन्या्स, नाटक एवं कवि‍ताक रूपमे बहेबाक असाधारण क्षमता छन्हिे‍ मण्डटलजीमे। हि‍नकर रचना पढ़ैत जाऊ आ ब्योंपत-पर ब्यौं त सुनैत जाऊ! हि‍नकर बात आ ब्यों त सभ सहज, चमत्का री मुदा वि‍श्वशनीय लागत। 
आब बात करी रचनापर। हि‍नक रचना इंद्रधनुषी अकास सरि‍पहुँ कवि‍ताक प्रकार, छोट-पैघक हि‍साबे, भावनाक प्रवाहक हि‍साबे, अनेक वि‍षयमे होबाक कारणे बहुरंगी चुनरी अछि‍। अतेक वि‍स्तृैत वि‍धा आ वि‍षयकेँ समेटबाक कारणे ऐ संकलनक नामकरण अहि‍सँ उत्तम नै भऽ सकैत अछि‍ : वैवि‍ध्य सँ भरल, मनोरंजक, रंगारंग, दीवास्वकप्न, सोहनगर-मनोरंजक आ मनोहारी अकास। ऐमे जीवनक यर्थाथ अछि‍, कवि‍क कल्पंनाक संसार अछि‍, उपमा आ अलंकार अछि‍, जीवनक दर्शन अछि‍, माटि‍सँ सि‍नेहक उद्गार अछि‍, गीत अछि‍, भाव अछि‍, अर्थ वि‍न्या‍स अछि‍, प्रेमक अनुभवजन्यऐ परि‍भाषा आ प्रवाह अछि‍, प्रकृति‍क अनुराग अछि‍, ग्राम्यप-जीवनक झांकी अछि‍ चीर प्राचीन आ चीर नवीन वि‍चार अछि‍। 
“इंद्रधनुषी अकास” नामसँ अपन लि‍खल एकटा छोट कवि‍ता स्मदरण अबैत अछि‍, आ स्म रण अबैत अछि‍ ओ परि‍स्थिकति ‍ जइसँ प्रेरि‍त भऽ पाँच वर्ष पहि‍ने इंन्द्रसधनुषपर एक छोट कवि‍ताक ि‍नर्माण केने रही। परि‍स्थि‍‍ति‍ ई छल जे हमर पाँच वर्षीय पुत्र शशांक हमरासँ जि‍द्द करय लागल जे ‘हमरा इन्द्र धनुष देखाउ।’ मुदा देखाऊ कोना! घोर समस्यार। कि‍छु काल सोचमे पड़ि‍ गेलौं। अन्तँत: कम्युरस् टर खोलि‍ इन्टरइनेट चालू कय ओकरा इन्द्रहधनुषक अनेको फोटो देखा देलि‍ऐक। शशांकक बालशुलभ मोन प्रसन्न भऽ गेलैक। राति‍मे सुतबासँ पहि‍ने मोनमे आएल जे ऐपर कि‍छु लीखी। पेन आ कागत लऽ लि‍खए लेल बैसि गेलौं। सोचल कवि‍ता लि‍खल जाए। कवि‍ताक शीर्षक सेहो फुरा गेल- ‘इन्द्र धनुषक वि‍न्याास’ कवि‍ता स्वोत: प्रारम्भट भऽ गेल- 

“सुरुजक इजोतसँ भरल आकास दग्धल कतेक अछि‍ 
गर्मीक धाहसँ मोन वि‍दग्धी कतेक अछि‍ 
कोना करी एहि‍ प्रचण्डध गीर्मीमे शीतलताक आभाष कोना करी टहटहाइत इजोतमे इन्द्रड धनुषक वि‍न्याभस?
मुदा हारि‍ मानब हमर प्रकृति‍मे कतअ अछि‍ एकाएक बुझाएल जेना इन्द्र धनुष अतअ अछि‍। मोन हरि‍याएल ब्यों्त फुराएल इन्द्र धनुषक ि‍नर्माण हेतु कल्पहनाकेँ सकार कय इन्द्रल-धनुषक रचना हेतु सोचल कोना नै हैत इन्द्र –धनुषक वि‍न्याधस?
टहटहाइत सुरुजदेवकेँ ऊपर आँजूरसँ पोखरि‍क पानि‍ छीटि‍, सुखल धरतीकेँ अरि‍यर करबाक हेतु कऽ लेब एकता छोट मुदा यथार्थक इन्द्र धनुषक वि‍न्यालस। फेर की सभ भऽ जाएत सोहनगर, की धरती आ की अकास।”

आब बि‍ना इमहर-ओमहर भटकने जगदीश प्रसाद मण्डलो जीक कवि‍ता संग्रहकेँ देखी। 110 कवि‍ताक समेटि‍ने 146 पन्नाक ई पोथी मैथि‍ली साहि‍त्यस केर एकटा अवि‍श्मरणीय धरोहर अछि‍। हरेक छोट आ पैघ कवि‍तामे कि‍छु संदेश, कि‍छु संस्कािर आ कि‍छु नव वि‍चार प्रस्फुेटि‍त होइत छैक। लोक मि‍थि‍लासँ बाहर पलायन करैत छथि‍ तँ मण्डसलजीकेँ कचोट होइत छन्हिन‍। मुदा जखन लोक मि‍थि‍लासँ साफे रि‍श्तात समाप्त कऽ आनठाम बैस जाइत छथि‍ तँ मण्डनलजीक हृदए जेना भोकासि‍ पाड़ि‍-पाड़ि‍ कानय लगैत छन्हिक‍। ऐ बातक सहज अनुभूति‍ उड़ि‍आएल चि‍ड़ैमे परि‍लक्षि‍त होइत अछि‍ : 
“उड़ि‍आएल चि‍ड़ैक ठेकाने कोन
उड़ि‍ कतऽ जा बास करत। भरि‍ पोख घोघ भरतै जतऽ
दि‍न-राति‍ जा रास करत। ओहन चि‍ड़ैक आशे कोन जे बि‍सरि‍ जाएत डीहो-डावर।”

देख! देस परदेस कतहु जाऊ मुदा अपन माटि‍ आ अपन संस्कृआति‍सँ अपनाकेँ बि‍मुख नै करू। शायद यएह बात थीक ऐ कवि‍ताक मूल। अगर आँखि‍ मूनि‍ पलायन करैत रहब आ अवसर एवं सफलता मात्र पेबाक कारणे अपन डीह-डाबर सदाक लेल त्या गि‍ लेब तँ भला अहाँ केहेन मनुक्ख ! अहाँक केहेन संस्काार? छोट कवि‍ताक माध्यासँ कतेक मर्मक बात बजैत अछि‍ जगदीश प्रसाद मण्डकल केर कवि‍ मोन!
एक आर कवि‍ता- “चल रे जीवन” अहाँकेँ रोकि‍ लेत। कवि‍ता पढ़ु, ओकर शब्द क युग्म केँ देखू आ कवि‍ताक संग अपना-अापकेँ गति‍मान बना लीअ। ने कवि‍ता रूकत आ ने अहाँ। बाह रे बाह! एहेन आसाधारन सम्बतन्ध- कवि‍ता आ पाठकक बीच जीवन गति‍शील थि‍क। ई बात अनेको कवि‍ अनेको भाषा आ कालमे अपन-अपन ढंगसँ कवि‍ताक माध्यपमसँ कहने छथि‍। मुदा अही बातकेँ सर्वहाराक शब्दािवलीसँ कहब। कहब की चलैत पहि‍यापर एना बैसाएब कि‍ पाठककेँ जोश आबि‍ जाइक। ई कला मण्डशल जीमे छन्हिह‍। कवि‍ताक कि‍छु अंश देखू- “कि‍छु दैतो चल कि‍छु लैतो चल कि‍छु कहि‍तो चल कि‍छु सुनि‍तो चल कि‍छु समेटतो चल कि‍छु बटि‍तो चल कि‍छु रखि‍तो चल कि‍छु फेकि‍तो चल बि‍चो-बीच तँू चलि‍ते चल। चल रे जीवन चलि‍ते चल।
समए संग चल ऋृतु संग चल गति‍ संग चल मति‍ संग चल। गति‍-मति‍ संग चलि‍ते चल। चल रे जीवन चलि‍ते चल।”
हँ, कवि‍ केवल गति‍मान होमाक प्रेरणा टा नै दैत छथि‍। ओ कहैत छथि‍ जे जोश संगे होशमे रहू : गति‍ संग चल/ मति‍ संग चल/ गति‍-मति‍ संग चलि‍ते चल।

‘सासु-पुतोहु वार्ता’ कवि‍तामे जेनरेशन गैप आ मनोवैज्ञानि‍क वि‍श्लेषण भेटत। जखन कवि‍ता पढ़ब तँ लागत मनोरंजक अछि‍। जखन सोचब तँ लागत एकटा अनुभवजन्या वि‍श्लेमषण अछि‍। एक-एक शब्द।क चयन कवि‍ताकेँ समाजसँ सीधे जोड़बामे प्रभावकारी अछि‍। “अपनेपर हँसै छी” शि‍क्षाक घटैत स्तेर, चाेरी, घूस दय नौकरी प्राप्तज करबाक तरीका, अवसरवादी नेता लोकनि‍क पाॅपुलि‍जम आ शि‍क्षा मि‍त्र इत्या दि‍ केर माध्ययमसँ कि‍छु पाइक मासि‍क भत्तामे राखब, ओइ लेल मुखि‍यासँ नेता आ अधि‍कारी धरि‍ घूसक प्रचलन आदि‍ प्रथापर सोझे-सोझ प्रहार अछि‍। जकरा फबलै से बि‍ना पढ़ने नकल कऽ परीक्षा पास कए डि‍ग्री हासि‍ल कय कोनहुना लाख-डेढ़ लाख टकाक ब्यौंअत कऽ नोकरी हथि‍या लेलक। भाँरमे जाउ शि‍क्षा बेवस्था‍ या चौपट्ट होथि‍ वि‍द्यार्थी! शि‍क्षामि‍त्र लोकनि‍केँ ऐ सँ की मतलब???

“बाट” कवि‍ता कवि‍ रवीन्द्र नाथ ठाकुरक कवि‍ता यदि‍ तोर डाक शुने केऊ न आसे/ तबे एकला चलो रे/ केर स्मथरण करबैत अछि‍। संगहि‍-संग गीताक मूल मंत्र “कर्मण्ये-वाधि‍कारस्तेत माँ फलेषु कदाचन,” अर्थात अहाँक अधि‍कार कर्म तक सीमि‍त अछि‍। तँए अहाँ कर्म करैत जाऊ, फलक इच्छा् नै करू... केर सेहो पुनर्स्था?पि‍त करए चाहैत छथि‍। 
कवि‍ भावुक सेहो छथि‍। होबाको चाही। भावुक नै भेल तँ कवि‍ताक कोना रचना करत कवि‍! कवि‍क भावुक मोन गीतमे बहय लगैत छैक। “गीत-2”मे कि‍छु एहने दशाक वर्णन थि‍क। भावनासँ द्रवि‍त मोन बाजत तँ कोना? बोल कुना फुटतै? : 
मुँहसँ बोल कन्ना कऽ फुटतै 
दरदसँ दुखाइ छै टीससँ टि‍सकै छै छाती लहि‍-लहि‍ लटुआएल छै मुँहसँ बोल कन्नाल.....। आशाक सभ मेटेलै बाटे सभ घेराएल छै ककरो कहने कि‍छु ने भेटत अपने बेथे बेथाएल छै मुँहसँ बोल कन्ना ... चोटसँ चोटाएल छै मन ढहि‍-ढहि‍ कऽ ढनमनाइ छै तैयो हँसि‍-हँसि‍ नाचय गाबए 
राति‍-दि‍न बड़बड़ाइ छै मुँहसँ बोल कन्नाद...। 
अही तरहेँ जाल आ गालक उपमा लऽ कवि‍ लोककेँ अगाह करै छथि‍ : जहि‍ना जाल सभ तरहक मांछकेँ पकड़ैत अछि‍, परन्तु. अगर मल्ला ह जालकेँ ठीकसँ नै ओछेलक आ काबूमे नै केलक तँ जाल फाटि‍ जाइत छैक, माछ भागि‍यो जाइत छैक। तहि‍ना मनुष्याकेँ अपन बोलीपर संयम करक चाही : शब्दैजाल छी महाजाल जइमे समटल महाकाल देखैमे जहि‍ना वि‍कराल तहि‍ना अछि‍यो महाकाल। सभ कि‍छु भेटत आँखि‍येमे सभ लटकल अछि‍ जालेमे सभ कि‍छु छै गालेमे। 
जे जेहन अछि‍ जलवाह से तेहन फेक फेकैए। गैंची ने गैंचि‍या जाइए रोहु, भाकुर तँ फँसि‍तेए। सभ कि‍छु भेटत जालेमे सभ कि‍छु छै गालेमे। गाल बजबैमे जे जेहन से तेहन जाल फेकैए। इचना-कोतरीकेँ के कहए डोका-काँकोर धरि‍ फॅसैए। सभ कि‍छु छै गालेमे सभ फॅसल अछि‍ जालेमे...।”

ि‍वचार तँ वि‍स्ता रपूर्वक अनेकाे कवि‍तापर लि‍खल जा सकैत अछि‍। हि‍नकर ई कवि‍ता संग्रह हाथक आंगुर जकाँ थि‍क। सभ आंगुर स्वेतन्त्रन अछि‍, मुदा सभ जुड़ल अछि‍ तरहत्थीजसँ। तहि‍ना हि‍नकर रचना “इंद्रधनुषी अकास” नामक मालामे गांथल एक सय दस कवि‍ता स्वितंत्र अछि‍- वि‍षय, भाव, शब्द‍–चयन, प्रेम, उपमा आदि‍क स्वाभावसँ परन्तुस अन्तनत: सभ कवि‍ता एक तागसँ गांथल अछि‍ ओ ताग थि‍क जगदीश प्रसाद मण्ड लक व्यकक्तिनत्वे  आ सोच। सभ कवि‍ता एक-सँ-बढ़ि‍ कऽ एक अछि‍। “माटि‍क फूल, गोधन पूजा, झगड़ा, नजरि‍, भभूत, पुरुषार्थ, अगहन, केना मेटत गरीबी, बाढ़ि‍क सनेस, बेरोजगारी, पू-भर, बेथा, एकैसमी शदीक देश, आदि‍ कि‍छु एहन कवि‍ता अछि‍ जकरा पाठक बेर-बेर पढ़ताह। 


इन्द्र्धनुषी अकासमे सामाजि‍क वि‍मर्श:: समाक्षक शि‍व कुमार झा ‘टि‍ल्लू ’




“इंद्रधनुषी अकास” आधुनि‍क मैथि‍लीक चर्चित गद्यकार श्री जगदीश प्रसाद मण्डुलक पहि‍ल पद्य संग्रह अछि‍‍। जगदीशजी सन् 2008सँ पूर्व मैथि‍ली साहि‍त्यदक लेल अनचि‍न्हज नाओं छलाह, मुदा गत तीन-चारि‍ बरखक भीतर हि‍नक वि‍वि‍ध बि‍म्बनक उपन्याँस, कथा, नाटक, एकांकी, बाल गद्य साहि‍त्यस आदि‍सँ मैथि‍ली साहि‍त्याकेँ उतर आधुनि‍क युगमे प्रवेशक अवसरि‍ भेट गेलनि‍।

मूलत: कथाकार आ उपन्यारसकार जगदीश प्रसाद मण्ड।ल कोनो चन्दाी झा सन प्राचीनता ओ नवीनताक सन्धिी‍क कवि‍ नै आ ने हि‍नक रचनामे परम्पनरावादी प्रीति‍क कतहु दर्शन होइछ। भुवनेश्वर सिंह भुवन जकाँ ने जगदीश नवीन प्रगीत काव्यीक व्यातख्याोता छथि‍ आ ने आरसी प्रसाद सिंह जकाँ आशु कवि‍।

९५ कवि‍ताक संग्रह “इंद्रधनुषी अकास”मे जे ई वैशि‍ष्ट्यसता प्रमाणि‍त कएलनि‍ ओ अछि‍ सम्पूरर्ण समाजक लेल समन्वेयवादी दृष्टि्‍कोणक दार्शनि‍क अवलोकन आ अर्थनीति‍क सम्यसक वि‍श्लेषण। अनचोकेमे कवि‍ता सबहक रूपेँ हि‍नक वि‍राट सरल जीवन दर्शन प्रदर्शित होइत अछि‍।
“मणि‍” वि‍षधर साँपकेँ सेहो मनोरम बना दैत जकर लोभमे सपेरा सबहक अंत भऽ जाइछ। ओ मणि‍ तँ वैज्ञानि‍क दृष्टिै‍कोणसँ काल्पअनि‍क थि‍क, मुदा मणि‍ कवि‍तामे कवि‍ अपन मनक मनोभावकेँ मढ़ि‍-मढ़ि‍ मणि‍’क रूप रेखाक संदेश दैत छथि‍। भाववाचक संज्ञा थि‍क-मणि‍ मुदा जाति‍ आ व्यंक्तिि‍क रचनाक लेल भावक आवश्यककता प्रासांगि‍क होइछ। जखन अर्न्तिमनमे दि‍व्य् ज्योमति‍ जागत तँ तन अवश्या प्रज्जइवलि‍त हएत। लक्ष्मीर  तखने औतीह जखन कर्मपथ उज्व्ांगल हएत। कर्मपथकेँ प्रकाशि‍त करबाक लेल स्वेस्थ् मोनक आवश्याक्ताज  होइत छैक। पहि‍ने ई अवधारना छल जे स्वतस्थ् शरीरमे स्वऽस्थ‍ मनक नि‍वास होइत छैक, मुदा आधुनि‍क वैज्ञानि‍क दृष्टेकोणे ई मि‍थ्याह प्रमाणि‍त भ्‍ाऽ रहलैक। व्य स्ती जीवन शैलीमे मोन अस्थिे‍र भऽ गेल छैक। बि‍नु कर्मक अधि‍क प्राप्ति।‍क तृष्णावसँ मनमे वि‍चलन स्वा‍भावि‍क जइसँ मोन अस्विस्थ । जखन मोन अस्वास्थष तँ शरीरक अस्वऽस्थ‍ हएब कोनो अजगुत नै। ‘चि‍न्ह बि‍ना औषधि‍ भारी’ वैज्ञानि‍क दृष्टिज‍कोणसँ अक्षरश: सत्यष  मानल जाए। सोडि‍यम कार्बोनेट धोवि‍या सोडर थि‍क आ सोडि‍यम बाइकार्वोनेट पेटक अम्लीोयताकेँ दूर करैत अछि‍। मात्र ‘वाइ’ शब्द: हटलासँ जौं उलटा सेवन हएत तँ जीवन वाइ-वाइ भऽ सकैत अछि‍।

मुदा सामाजि‍क जीवनमे धोवि‍यो सोडर अनि‍वार्य कि‍एक तँ मात्र पेटक अम्लीियता दूर कएलासँ शरीरक मोइल नै धोअल जा सकैछ। तँए जीवनमे सबहक लेल समायुसार स्थामन देल जाए। ‘श्रेष्ठी जीवन मानव कहबै छै मानवता उद्देश्ये जकर’ ऐ पॉति‍सँ रचनात्मेक समन्ववयवादी न्यावय दर्शन प्रदर्शित होइत छैक। समाजक आगाँ पॉति‍क लोक जखन कात लागल वर्गकेँ मर्मािहत करैत अछि‍, तखन कातक लोक सेहो उग्रता प्रदर्शित करैत अछि‍। ऐ प्रकारक अदला-बदलाक भाव जगदीश जीक ऐ कवि‍तामे नै भेटल। ई तँ सकारात्म-क सोचक आशावादी दार्शनि‍क जकाँ अपन कवि‍ताक इति‍ श्री करैत छथि‍- 
‘मनुखक भेद वि‍भेद
मेटबैक छी धर्म ओकर’
संभवत: ब्रह्माक वरद पूत सभकेँ आदर्शवादी बनबाक संदेश देलनि‍ अछि‍। ओना अलंकार मि‍लएबाक क्रममे एकठाम चूकि‍ गेल छथि‍
जखने मन मणि बनत छि‍टकत ज्यो ति‍ धरतीपर
अपने बाट अपने देखब हँसैत चलब पृथ्वीकपर
ऐठाम पृथ्वीन परक स्थाबनपर ‘परतीपर’ जौं लि‍खल रहि‍तए तँ शब्दन सामंजस्य् भऽ सकैत छल। ओना कवि‍क दृष्टिप‍कोण भऽ सकैत छैक जे कि‍छु आर होन्हि।‍। 

गंभीर आशु काव्येक मान्य‍ता समाप्त  होइत मैथि‍ली साहि‍त्यरमे वि‍चार मूलक पद्य बि‍रले भेटैत अछि‍। जीवन आ आध्या त्मतक संबंध चलन्ति समाजक बीच देखैमे आबि‍ रहल छैक। सभ दि‍श भागमभाग सोचबाक लेल फुरसत नै। मैथि‍ली साहि‍त्य्मे छायावादक काल ि‍नर्धारण तँ नै कएल गेल अछि‍, मुदा अनचोकेमे कि‍छु साहि‍त्यधकार ऐ काव्यल वि‍धापर समए-समैपर रचना कऽ दैत छथि‍। ‘चल रे जीवन’ कवि‍ता आध्या‍त्मिर‍क दर्शनसँ कर्मशील जीवनक संधि‍ करबामे पूर्णत: सफल मानल जा सकैछ। महाकवि‍ आरसीक कहब छलन्हि्‍ जे सभ लोकमे आशुत्वि होइत छैक मुदा लेखनीसँ अभि‍व्यहक्त‍ करबाक लेल अर्न्त्मन आ आत्मामक मि‍लन जि‍नकामे हएत वएह ‘आशु कवि‍’ मानल जएताह। जगदीश तँ आशुकवि‍ नै छथि‍, मुदा ‘चल रे जीवन’ हि‍नक क्षणि‍क अर्न्त मन आ आत्मीीय मि‍लनक परि‍णामे आशु कवि‍ता अवश्यन भऽ गेल। जीवनमे गति‍ सर्वाधि‍क उपयोगी आ सम्प्रेभु-सर्वशक्तिक‍ मान तत्व‍ थि‍क। जइ वसुन्धलराक माथपर हमर अस्ति्‍त्वक अछि‍ ओ कखनो ने रुकैत छथि‍। ग्रह-नक्षण सभ सदि‍खन गति‍मान, अंति‍म काल धरि‍ जीवन गति‍मान, मुइलापर प्राण गति‍मान होइत अदृश्यल चक्रमे प्रवेश कऽ जाइत अछि‍। 
“यात्रीकेँ आराम कहाँ छै
यात्रा पथ वि‍श्राम कहाँ छै।”
जे अभागल छथि‍ ओ सुतले रहथि‍ मुदा हुनको शरीरमे क्षि‍ति‍, जल, पावक, समीर, रुधि‍रक संग सभ अंग मौलि‍क रुपसँ गति‍मान रहैत अछि‍। ‘सूर्य-तरेगन सेहो चलै छै’ वैज्ञानि‍क मान्यितासँ सर्वथा अनुचि‍त मानल जाइत अछि‍। सूर्य नै तँ उगैत अछि‍ आ ने डुमैत अछि‍। तँए कवि‍क एक पाॅति‍केँ मात्र उत्साकह वर्धनक लेल कवि‍त्वँक कि‍छु मंद वात मानल जाए। वास्तावि‍क रूपसँ ई असत्य  मात्र कवि‍तेमे क्षम्यक जौं कथा रहि‍तए तँ अप्रासंगि‍क मानल जा सकैत छल। 
जेना जगदीश कथामे शब्दक समंजन कऽ लैत छथि‍ ओना कवि‍तामे कतहु-कतहु ओझरा जाइत छथि‍न्हछ।
“समए संग चल, ऋूतु संग चल
गति‍ संग चल मति‍ संग चल।”
सभठाम ‘संग’ उदेश्यल आ कथोपकथनक लेल सर्वथा उचि‍त, मुदा स्वारात्मगक पद्यमे कथोपकथनक संग-संग अलंकार आ छंदक सम्मि ‍लन सेहो आवश्यपक होइत अछि‍। ई कवि‍ता कोनो अतुकांत कवि‍ता नै तँए छंदमे आबद्घ करबाक लेल कवि‍केँ वि‍शेष धि‍यान देबाक छलनि‍। जगदीशक शब्द -कोषमे मैथि‍लीक खॉटी शब्दन सभ भरल छन्हिि‍ तँए हि‍नकासँ आर आशा कएल जा सकैत अछि‍। 
बाल मनोवि‍ज्ञानक दृष्टिश‍सँ ई पद्य उपयुक्तज मानल जाए। जे बाल आ युवावस्था क संधि‍ भऽ सकैत अछि‍ कि‍एक तँ ऐ अवधि‍मे जीवनक गति‍-चक्रकेँ बूझब वि‍शेष अनि‍वार्य होइछ। ऐसँ भाषा-साहि‍त्‍य वि‍कास सेहो होइत छैक। आरसी प्रसाद सि‍ंह, सोहन लाल द्वि‍वेदी, सुमि‍त्रा नंदन पंत आ हरि‍वंश राय बच्चअन सन हि‍न्दी‍  साहि‍त्य क ‘आशुकवि‍’ लोकनि‍क ऐ प्रकारक पद्य प्रारंभि‍क आ माध्यामि‍क शि‍क्षामे वि‍शेष लोकप्रि‍यता प्राप्तक कएने अछि‍। 
“टुटए ने कहि‍यो सुर-तार
हुअए ने कहि‍यो जि‍नगी बेहाल।”
जखने जीवनमे गति‍ मति‍ आ नि‍यति‍क त्रि‍वेणी अलग-अलग भऽ जाइत अछि‍ तँ जीवन उदासीन आ परि‍णाम कष्टयदायी, तँए कवि‍क ऐ उक्तिि‍केँ वि‍चारक संग-संग शि‍क्षा मूलक सेहो मानल जाए। गति‍ बि‍नु पहि‍ने जि‍नगी अक्रि‍य फेर अकर्मण्यतता आ परि‍णाम जि‍नगी बेहाल, अंकगणि‍तीय आधारपर दृष्टिा‍कोणकेँ प्रमाणि‍त कएल गेल जे सर्वथा उपयुक्त  लगैत अछि‍।

जीवन जीवाक कलासँ संबंध काव्यछमे प्राय: कवि‍ लोकनि‍ स्व यंकेँ नायक बना कऽ कवि‍ता लि‍खैत छथि‍। हि‍न्दी   साहि‍त्यकमे जानकी वल्ल भ शास्त्रीक आध्यातत्म  दर्शनक सम्मिद‍लन- “मेरे पथ में न वि‍राम रहा” सँ कएलनि‍ तँ मैथि‍ली साहि‍त्यकमे कालीकान्त  झा बूच- “मृगी जकाँ हम कॉपि‍ रहल छी, झॉखुरसँ तन झॉपि‍ रहल छी” रूपेँ समाजक रुग्नि दशासँ बचि‍ कऽ जीबए चाहैत छथि‍। मुदा जगदीश ऐ समाजक मैलकेँ साफ करबाक लेल उद्वि‍ग्नज छथि‍। ‘धोब घाट’ कवि‍ता कोनो मैल वस्त्रदक मूल नै, वरन समाजक कृत-कृत्यापर लागल कुचक्रकेँ साफ कऽ कऽ ऐ सँ वचबाक प्रेरणा थि‍क-
“धोइब घाट ओ घाट छी,
पाप धुआ पुन बनैत रहैत
अज्ञान-ज्ञान राति‍ दि‍न
रगड़ि‍ सान चढ़बैत रहैत”
मैथि‍ली साहि‍त्यचमे रीति‍क त्रि‍भाषीय नाटक, प्रीति‍क महाकाव्यी अर्थहीन वैरागी काव्यल शास्त्र् कखनो वि‍नोदी, कखनो चलन्तत कवि‍ता आ कखनो नाम-गाम आ ठामक पद्यसँ भरल पद्य संग्रहक प्रधानता अछि‍ कि‍एक तँ भलमानुस जे लि‍खत वएह कोसक पाथर मानल जाएत। तँए अभावक ऐ साहि‍त्येमे नीति‍शास्त्रनसँ सन्नि‍हि‍त पद्याभावकेँ ‘धोब घाट’ सन कवि‍ता पूरा करैत अछि‍- 
उला-पका राति‍केँ
साले साल सूर्ज सुड़कैए
सुख आरामक पहर छीि‍न 
हँसि‍-हँसि‍ राति‍ दि‍न झाड़ैए।
कोनो आवश्यपक नै जे जाज्वँल्य‍मान नक्षत्रक कर्मसँ नि‍कसैत प्रभावक सभटा परि‍णाम उत्तमे हएत। सूर्य ज्यो ति‍क प्रतीक छथि‍, मुदा कखनो तँ हि‍नको कि‍रण जीव-अजीवकेँ उला-पका दैत अछि‍ तत्प श्चात् अन्हाेर। हि‍नक प्रति‍भा आ कर्मपर कवि‍केँ कोनो संदेह नै तँए भलमानुसोक अधलाह कर्मक वि‍रोध करबाक चाही। ऐसँ समाजमे दृष्टि ‍कोणक वि‍जय प्रासंगि‍क हएत। वृक्ष मात्र गगनगामी..... एकर एक दृष्टि ‍ एकटा उद्देश्यय होइछ परंच शोर वि‍चलनसँ भरल लक्षण रखैत अछि‍। एक ध्व नि‍ अकास आ दोसर पताल प्रकृति‍क रंग बॉसक गि‍रह जकाँ प्रत्येकक दृश्ययपर पटाक्षेप। नाटकक अंकमे एकसँ बेसी दृश्यध होएबाक चाही, मुदा प्रकृति‍ अर्थात् वि‍धाता अपन प्रत्येसक अंककेँ अलग-अलग दृष्यृसँ आबद्घ कऽ वि‍वि‍ध नाटकीय परि‍दृश्यंक मंचन करैत अछि‍। ऐ पद्यक प्रत्येवक छंदमे वि‍शेष अर्थ झॉपल अछि‍ जे पाठकक मस्तिै‍ष्कपर ज्या्मि‍ति‍क दबाब अवश्यि बनाएत-
जहि‍ना डारि‍ करोटन लीची
खोंधि‍‍ते खोंइचा पकड़ैए
नि‍च्चाँे-ऊपर ससरि‍-ससरि‍
अपन-अपन बाट पबैए
भारतीय संस्कृपति‍क संग ई दुर्भाग्य  रहल जे परम्प‍रावादी दृष्टि ‍कोणक कि‍छु अवांक्षि‍त तत्वईसँ लोक परेशान तँ छथि‍ मुदा कि‍यो ओकरा समाप्त  होमए देबए नै चाहैत छथि‍। ‘काटर प्रथा’ ऐ रूपेमे सभसँ ि‍नर्घिष्ठम मानल जाए। ‘सासु-पुतोहु वार्ता’मे कवि‍ ओना स्पयष्टक रूपेँ काटरक परि‍णाम स्व रूपक उद्वोधन नै कएने छथि‍, मुदा परक बेटीकेँ बेटीक रूपमे स्वीठकार करब सुसंस्कृकत समाजक नारी लेल असहज होइछ। ई वि‍डंवना जे अपन संतानक संग जे सि‍नेह रहैछ ओ  दोसराक संतान जे आब आत्मनसात भऽ गेल छथि‍ ति‍नका लेल असंभव। ओना एकरा स्वांर्थ सेहो नै मानल जा सकैछ कि‍एक तँ पुतोहुक आवश्यरकता व्यााहुत बेटीसँ बेसी होइत छैक। ऐमे प्रति‍द्वन्द्व ताक भाव रहैत अछि‍‍। मनुक्खऐकेँ अपन अधि‍कार तँ मोन रहैत अछि‍ मुदा कर्त्तव्य वोधक ज्ञान जि‍नकामे नै रहत हुनका पारि‍वारि‍क शांति‍क स्प प्न। देखनाइ सर्वता अनुचि‍त आ भ्रामक।
प्रति‍द्वन्द्वि ‍ता ऐ खेलमे सासु-पुतोहु दुनू दोषी मुदा सासुक दोख बेसी कि‍एक तँ आनक बेटी अपन घरमे अनलाक बाद हास-परि‍हास सासुएक मुखसँ पहि‍ने नि‍कलबाक संभावना रहैत छैक-
ओसार पुवरि‍या बैस सासु
पड़ल पुतोहुकेँ देल धाही
अकड़ि‍ कऽ मकड़ि‍ बाजलि‍
देहक पानि‍ लऽ गेल हाही।
ककरोपर जौं झूटका फेंकब तँ प्रत्युलत्तरमे पाथर अवश्यो भेटत, कि‍एक तँ कि‍यो-ककरोसँ कम नै। अधलाह देखौंस संस्का र मनुक्ख मे पहि‍ने अबैछ तँ नवकी कनि‍याँ कोना चुप रहतीह-
पानि‍ये तँ पसरि‍ देहमे
पीब गेल सभटा पाणि‍ 
की करब, फुरि‍ते कहाँ अछि‍
कहाँ पड़ल छी जानि‍....।
ऐ प्रकारक आरोप-प्रत्याअरोप ग्रामीण समाजमे बरोबरि‍ देखए मे अबैत अछि‍। परि‍णाम परि‍हासक संग-संग अपन दैनन्दित‍नीमे लागलि‍ पुतोहु सासुरमे बसलि‍ ननदि‍केँ बीचमे सेहो लऽ अबैत छथि‍।
कवि‍क कहबाक उद्देश्यप छन्हिम‍ जे स्विस्थद जड़ि‍सँ स्व्स्था वृक्षक वि‍कास हएब प्रासंगि‍क तँए सासुकेँ अपन मर्यादाक स्मवरण राखि‍ पुतोहुक संग ओहने बेबहार करबाक चाहि‍यनि‍ जेना बेटीक संग करैत छथि‍। पुतोहुकेँ सेहो सासुमे अपन माइक छबि‍ देखबाक आवश्यछकता छैक।

प्रयोगात्मगक रूपेँ आब ऐ प्रकारक अनटेटल क्रि‍या-कलापक संभावना क्षीण भऽ रहलैक कि‍एक तँ पलायनवादी समाजमे सासु-पुतोहु एक संग रहतीह, बि‍रले अवसरि‍ भेटैछ। जगदीशजी गाममे रहि‍ कऽ साहि‍त्यक साधना कऽ रहल छथि‍ तँए ऐ प्रकारक घटना गाम-घरमे घटि‍त होइत देखानाइ कवि‍क लेल कोनो अजगुत नै। कवि‍ताक बि‍म्बो आ शि‍ल्पेसँ बेसी महत्वापूर्ण अछि‍ कवि‍क उद्देश्य्। एे दृष्टि ‍सँ जौं देखल जाए तँ कवि‍ता नीक छैक। भाषा वि‍ज्ञानक रूपमे अद्भुत कि‍एक तँ अपन गद्य जकाँ एेठाम जगदीश धाही, अकड़ि‍, मकड़ि‍, हाही, लसि‍या, नि‍चेन सन लुप्त‍ होइत शब्द  सभसँ पद्यकेँ वांछि‍त रूपेँ बोरि‍ कवि‍ता श्रवणीय बना देलनि‍‍।

“बौड़ाएल बटोही” शीर्षक कवि‍ता ऐ संग्रहक सभसँ नीक बि‍म्बेकेँ केन्द्रि ‍त कऽ कऽ लि‍खल गेल अछि‍। जीवन दर्शन आ आध्या‍त्म क तात्वि‍क वि‍वेचन अत्यिन्ते वि‍स्मदयकारी छायावादसँ भरल मानल जा सकैछ। ‘परदा’मे ओझराएल जि‍नगी जकाँ वर्त्तमान मनुक्ख्क जीवन भऽ गेल अदि‍। प्रयोगात्मझक रूपेँ आब कोवरक कनि‍याँक ओ रूप कतए जकर कल्प‘ना कवि‍ कएने छथि‍, मुदा गामक समाजमे एखनो कोवरमे नुकाएल कनि‍याँ भेटैत अछि‍। कोवरक कनि‍याँ तँ मर्यादाक अनुपालनक लेल नुकाएल छथि‍ मुदा कर्म पथपर वि‍चरण करैबला मनुक्खन कटि‍ कऽ कि‍एक रहि‍ रहल अछि‍? जे कि‍छु नै जानि‍ रहल अर्थात् अशि‍क्षि‍त मूक अनभुआरसँ सामर्थ्यनशील मनुक्ख  कि‍एक तकरार कऽ रहल छथि‍? अपन-अपन कर्मक संग-संग माए-बापक कर्म ओ धर्म संतानक सफलताक बाट उज्ज्व ल करैत अछि‍। ऐठाम धर्मक भाव संप्रदाय नै अपि‍तु मानवीय मूल्यैक सम्यठक अनुपालन मानल जाए। वि‍लगि‍त पथपर जौं चरण राखल जाए तँ बुइध बि‍‍लेनाइ स्वाबभावि‍क आ जखन बुइध बि‍ला जाएत तँ बाट कलुष अवश्यज भऽ जाएत-
बाटे बि‍ला वुइध
बाटे बि‍सरि‍ गेल
जेम्हबर जे चलल
तेम्हबरे पहुँचि‍ गेल...।
कर्मक बीआ जाैं सत्वँ तम ओ रज रस रससँ बोरल नै जाएत तँ ‘मनोकामना’ भ्रम बनि‍ अपन सि‍द्धि‍क आशमे लुप्ता अवश्य  भऽ जाएत। 
कोनाे रचनाकार जौं स्वमयं नायक बनि‍ कवि‍ता लि‍खैत छथि‍ तँ कोनो अचरज नै, मुदा बेसीठाम कवि‍ स्वायंकेँ रीति‍ ओ प्रीति‍क नायक बना कऽ कवि‍ता लि‍खलाहेँ ई बरोबरि‍ मैथि‍ली साहि‍त्यिमे देखएमे अबैत अछि‍। अपन आलोचना करब सबहक लेल संभव नै, ओना कतौ-कतौ हास्य  रसक कवि‍तामे कवि‍ लोकनि‍ अपन मजाक अवश्यत उड़बैत छथि‍ मुदा एना करब कवि‍ताकेँ लोकप्रि‍य बनाएब मात्र मानल जाए। ‘अपनेपर हँसै छी’ शीर्षक कवि‍ता मूलत: वर्त्तमान शि‍क्षा प्रणालीपर कविक‍ आलोचनात्मीक काव्य‍ शैलीमे प्रहार थि‍क। स्व्यंकेँ नायक बना कऽ चोरि‍क डि‍ग्रीक आधारपर ‘शि‍क्षा मि‍त्र’क नौकरी प्राप्त  करबामे हेर-फेर देखाओल गेल अछि‍। गाममे रहि‍ कऽ बि‍हारक शैक्षणि‍क प्रणालीपर कटु टि‍प्पधणी न्यारयोचि‍त। शासन तंत्र कतबो मजगूत मानल जाए मुदा जखन बेबस्थेर भ्रष्टल, तखन इमानदारीक दाबा केनाइ भ्रामक सि‍द्ध होइत छैक। साम्यअवादी वि‍चारधाराक अक्षरश: सम्पोोषक कवि‍ कोनो राजनैति‍क दल वि‍शेषपर टि‍प्पधणी नै केने छथि‍। अर्थनीति‍ जौं भ्रामक हुअए तँ ऐ लेल सम्पूदर्ण समाजकेँ दोख देल जाए। लोक जखन स्वेयं भ्रष्टअ भऽ गेल छथि‍ तँ प्रजातंत्र वा शासन तंत्रपर दोख देब अनुचि‍त-
लाखे रूपैयामे
दशो कट्ठा जमीन गमेलौं
गुरु दक्षि‍ना देने बि‍ना
गुरु भाइक भार उठेलौं....।
ओना भारतीय परि‍दृश्य मे बि‍हारक राज्ये बेबस्था् भलहि‍ं स्तवरीय मानल जा रहल मुदा शैक्षणि‍क बहालीमे योग्यषतमक उत्तरजीवि‍कामे धन बल आ कुचक्रबल बेसी भारी पड़लैक, ज्ञानक मोजर एखनों नै भेटि‍ रहल। पाँच हजारक नौकरीक लेल मूल्‍यवान वसुन्धीराकेँ बेचि‍ लोक लौटरी लगा रहल छथि‍। एकर दू गोट कुपरि‍णाम- पहि‍ल कृषि‍ कार्य जे हमरा समाजक रीढ थि‍क तकर महत्वु समाप्त‍ भऽ रहलैक आ दोसर प्रति‍भाक पलायन अवश्यपभावी कि‍एक तँ साधनहीन प्रति‍भा सम्परन्न व्यरक्ति ‍ ऐ भ्रष्टत मंचपर कोना आसीन होथि‍-
बि‍नु धनक धनि‍क जहि‍ना
ताम-झाम देखबैए
देखि‍-देखि‍ आँखि‍ करूआए 
लाजे आँखि‍ मुनै छी
अपने पर हँसै छी.....।

वि‍चारमूलक पद्य देशकालक दशाक एक रूपेँ सत्यआश: चि‍त्रण करैत अछि‍। चारूकातक परि‍दृश्यर हेहर भऽ गेलैक, ऐ दशामे सोझ बाट अकल्यारणकारी लगनाइ कोनो अनुचि‍त नै। चोटगर तीक्ष्णी वान चला कऽ भ्रष्टँ लोक अपनाकेँ सत्यच साबि‍त करबामे कोनो अर्थे नै हुसैत अछि‍ कि‍एक तँ धनक संग गालक जमाना एक तँ चोरि‍ आ दोसर सीना जोरि‍। ऐ कटु सत्यएकेँ साहि‍त्य मे कोना स्वी कार कएल जाए ई तँ भवि‍ष्य क गप्पन मुदा यात्री आ आरसी जकाँ अपन लेखनीक संग जीवनमे सम्य क साम्य‍वादी जगदीशक ई कवि‍ता समाजक लेल दि‍शा ि‍नर्देश कऽ रहलैक‍। ओना ई अलग बात जे वर्त्तमान परि‍दृश्य  फ्रांसक राज्याक्रांति‍ जकाँ नै जखन रूसो आ वाल्टेेयरक आखर-आखरसँ समाजमे क्रांति‍ आबि‍ गेल छल।
आशावादी दृष्टि्‍सँ जौं सोचल जाए तँ साहि‍त्यव समाजक दर्पण अवश्यद प्रतीत हएत, मुदा प्रत्येतक पाठक एकर सम्येक् तत्वरकेँ जौं अपन जीवनमे उतारि‍ लेथि‍ तखने ई संभव मानल जा सकैछ।

क्रमश:............. 

समाजक माने सबहक दृष्टि ‍कोण आ आचार-वि‍चारक सभ गोट रूप व्याकपक अर्थमे मंथन कएल जाए। जगदीशजी ‘धोब घाट’ कवि‍ताक बाद ‘धोबि‍ घाट’ कवि‍ता सेहो लि‍खने छथि‍। ‘दर्शन’ कोनो पोथी पढ़ि‍ नै उत्पन्न कएल जा सकैछ, ई तँ जीवनकेँ देखबाक अपन दृष्ट कोण होइत अछि‍। उदयनाचार्य कोनो काशी आ प्रयागमे रहि‍ ‘न्या‍य कुसुमांजलि‍’ सन पोथी नै लि‍खने रहथि‍। राजपूत कालक ‘करि‍यन’ हुनक साहि‍त्यप सृज्न ताक गहवर छलनि‍। तँए जगदीशसँ टेम्सर नदीक सभ्युताक आधुनि‍क बि‍म्बहक आश केनाइ सर्वथा अनुचि‍त हएत कि‍एक तँ मि‍थि‍लाक खॉटी गाम ‘बेरमा’ हि‍नक साहि‍त्यए साधनाक केन्द्र  बि‍न्दु  छन्हिा‍। दर्शनक तीन वयस होइत अछि‍- नीति‍, श्रृंगार ओ वैराग्यक। सामाजि‍क जीवनमे रहनि‍हार मनुक्खिक लेल तीनूक सम्यनक काल ओ भाव होइत छैक। जीवन क्रममे संतुलन बनएबाक लेल तीनू वयससँ अलग-अलग सत्वक रज ओ तमो गुण टपकैछ। ‘सात्विव‍क भाव’ कवि‍ता सत्वी गुणकेँ आधार बना कऽ लि‍खल गेल अछि‍। सात्वि‍‍क भाव वि‍रासतपर आधारि‍त होइत छैक। जाहि‍ ठामक भूमि‍ सात्‍वि‍क, हवा पानि‍ सात्विर‍क माने नैसगि‍क संस्का‍र सात्व कतासँ भरल होइछ ओइठाम एकर प्रभाव अवश्यंैभावी होइत छैक। लक्ष्य्, संकल्पठ आ दृष्ताव सेहो मनुक्खेकेँ सम्ययक शाश्वोत कर्म दि‍श लऽ जाइछ, मुदा ऐ लेल संस्काार अनुवंशि‍की आदि‍पर व्यसक्ति ‍त्वाक वि‍चार ि‍नर्भर होइछ। सुभाव-कुभाव आदि‍ संगहि‍ चलैत अछि‍ मुदा ऐ लेल दृष्टि्‍कोणकेँ जाहि‍ रूपसँ देखल जाए वएह रूप दृष्टि ‍गोचर हएत। कवि‍ताक भाव दर्शनपर आधारि‍त सरल शब्दिमे मुदा वि‍चार बोधक लेल गूढ़ अछि‍ तँए एकरा बेशी लोकप्रि‍य नै मानल जाए परंच साहि‍त्यि ‍क वि‍कासक लेल आ जीवन-दर्शनक लेल युक्तिए‍संगत कवि‍ता थि‍क।

दि‍व्यर पुरुष ओ जे सोलह कलासँ परि‍पूर्ण होथि‍। ‘दि‍व्यभ शक्तिज‍’ शीर्षक पद्य सरल रूपेँ पढ़लाक बाद कि‍छु वि‍शेष नै देखबामे अबैछ मुदा जेना कवि‍क व्यलक्तिस‍त्व  अर्न्तममुखी तहि‍ना पद्यमे गूढ़ रहस्य् झॉपल छैक। दि‍व्य् शक्‍ति‍सँ पूर्ण होएबाक बाद मनुजमे प्रखर ज्यो ति‍क आवरण पनकि‍ जाइत अछि‍। नीक-अधलाह वि‍चार संस्काैरसँ उत्पयन्न होइत अछि‍ मुदा गंगा माने पवि‍त्रताक परि‍चायक संस्कृैति‍सँ आबद्घ् जलधाराक कोखि‍मे सबहक लेल समान स्थाधन। जइ भूमि‍पर वसुदेव वि‍राजथि‍ वएह वसुधा.......।
नन्दू आ वसुदेवक प्रसंग तँ वर्तमान सामाजि‍क परि‍दृश्यसमे ‘उपहास’ जकाँ भऽ गेल अछि‍ मुदा कवि‍ आशावादी छथि‍.....
पाँचम कला बनि‍ जे बीआ
मनुज मन वि‍रजैए
डेगे-डेगे डगरि‍-डगरि‍
सोलहम कला पबैए...
जगदीश जीक जे काव्यग सृजनता ओ व्यंागनाक वि‍शेषता छन्हि.‍ ओ थि‍क हि‍नक आशावादी सकारात्मकक दृष्टि ‍कोण। अपन पद्यमे कतौ कवि‍ सामाजि‍क दशासँ नि‍राश नै छथि‍। कालक अकालकेँ अपन पद्यमे देखबैत तँ छथि‍ मुदा ओहि‍सँ उदि‍ग्नन नै। 
‘उड़ि‍आएल चि‍ड़ै’ कवि‍तामे वर्त्तमान मानवक मनोवृत्ति उझलि‍ लेखनीसँ कवि‍ताक रूपेँ उद्धृत कऽ कवि‍ पलायनवादपर तीक्ण्न  प्रहार कएलनि‍ अछि‍। ऐ पलायनमे मात्र अपन माि‍टसँ पलायन नै अपि‍तु संस्काँर आ मानवीयमूल्य क पड़ाइन सेहो देखाएल गेल अछि‍। ‘चि‍ड़ै’क उदाहरण मात्र कवि‍क छायावादी दृष्टि ‍कोण छन्हित‍, कचोट तँ संस्कृवति‍क पराभवकेँ मानल जाए। जे चि‍ड़ै अपन डीहो-डाबरकेँ बि‍सरि‍ स्वाार्थ आ कृत्रि‍मताक लहरि‍मे जतऽ घोघ भरतै ओतहि‍ रास करत ओहि‍ चि‍ड़ैक मधुर स्व रसँ मूल समाजकेँ कोन काज-
ओहन स्मृ‍ति‍ स्मृ ते की
जे मने मन घुरि‍आइत रहैत
पसरि‍ नै पबैत जे कहि‍यो
तरे-तर खि‍आइत रहैत....।
कवि‍सँ बेशी समाजक लेल वि‍डंबना जे बाटसँ भटकल बाटोही अपन मूल बाटपर श्रद्धा तँ व्यकक्त‍ करैत अछि‍, मुदा जइ पथमे पहि‍ल बेर उदयायल आदि‍ि‍लक दर्शन होइत अछि‍ ओइ पथपर फेर धुरब पथ भ्रष्ट क लेल असंभव जकाँ लगैत अछि‍। अपन मूल संस्काफरक पराभव करब उचि‍त नै मात्र स्मृअति‍सँ मूल माटि‍मे मातृत्वम कोना उत्पन्न हएत। तँए ‘पलायन’ कोनो रूपेँ उचि‍त नै।

मि‍थि‍लाक माटि‍-पानि‍सँ फलैत-फूलैत हि‍न्दीनक चर्चित उपन्याससकार फनीश्वर नाथ रेणु आंचलि‍क बनि‍ गेलनि‍। जौं मैथि‍लीक गप्पन करी तँ कथाकार तँ कथा जगतमे ललि‍त, राजकमल, धूमकेतु, कुमार पवन आ कमला चौधरी सन प्रांजल आंचलि‍क कथाकार भेल छथि‍ मुदा आंचलि‍क काव्यल जगतमे समग्र सामाजि‍क दैनन्दि ‍नीककेँ छूबैत कवि‍मे यात्री (चि‍त्रा) ओ आरसी प्रसाद सिंह (सूर्यमुखी)क पश्चात् जगदीश प्रसाद मण्डतलकेँ मानल जाए। ‘सान-धार-धारा’ कवि‍ता कोनो कैंचीक शानपर आधारि‍त काव्य  बून नहि‍ ई तँ मानवीय मूल्यि ओ संवेदनाक शानपर आधारि‍त पद्य अछि‍-
जे धारा सि‍रजए गंगा
कमला कोशी ओ महानन्दार
ओ धार कहि‍या धरि‍ ठमकि‍
मानैत रहत फंदा?
गंगा, कमला आ कोसीक कि‍छेरमे बसल गाम सभ मि‍थि‍लाक परि‍धि‍क भीतर अबैछ ऐ तरहक उल्लेलख तँ बहुत रास कवि‍तामे भेटैत अछि‍, मुदा ऐठाम ‘महानन्दा‍’क चर्च कऽ कवि‍ पुबरि‍या बि‍हारक क्षेत्र कि‍शनगंजसँ आगाँ धरि‍क लोककेँ आश्वस्त् कऽ देलन्हिप‍ जे अहूँ मैथि‍ले थि‍कौं? मात्र पद्यमे लयात्मँकता भरबाक लेल एना नै कएल गेल। कवि‍ मोन भावुक होइत छैक, भावमे बहनाइ कवि‍क प्रवृत्ति‍ मुदा मि‍थि‍लाक संस्कावरसँ भरल रहलाक बादो ई क्षेत्र साहि‍त्यामे अपच जकाँ छल, तँए कवि‍क भावनाकेँ सम्मा्न करबाक चाही।
’जहाँ न जाए रवि‍ वहाँ जाए कवि‍’- ई वाक्यर जे कि‍यो लि‍खने होथि‍ मुदा ई सर्वथा वि‍चारमूलक अछि‍। ऐ संग्रहक कि‍छु पद्य जेना पपीहाक गीत, वि‍खधरक बीख, नंगरकट घोड़ा आदि‍ पढ़लासँ स्पहष्ट,त: बुझना गेल जे छायावादी दृष्टिर‍कोण रचनाकारकेँ छोड़ि‍ सबहक लेल पूर्णत: बुझबामे नै अबैत छैक। ‘कोइली’ शीर्षक कवि‍तामे कवि‍ चन्द्र भानु सिंह ‘मैथि‍ली’क सरसताकेँ स्परष्ट‍ रूपेँ पाठक वा श्रोता लग परसि‍ देने छथि‍ मुदा पपीहा गीत शीर्षक पद्य कोनो चि‍ड़ै-चुन्मु्न्नीक स्व रपर आधारि‍त संस्कृसति‍ गीत नै ई तँ सम्पूतर्ण दर्शन थि‍क- जीवन-मरणक दर्शन। धरती अकाश, जल-थल कानि‍-अकानि‍ सन सहचाी विपरीतार्थक जीवन दर्शन.........


काव्य क व्यासख्यात बड़ कठि‍न होइछ, तँए गजेन्द्र  ठाकुर जीक ऐ मतसँ सहमत छी जे कवि‍ता कम लोक पढ़ैत छथि‍। चलन्तर गीत-नादकेँ जौं छोड़ि‍ देल जाए तँ प्राय: साहि‍त्यित‍क काव्युमे कतौ ने कतौ कवि‍ स्वीयं जीवि‍त रहैत छथि‍। कि‍छु वि‍शेष बि‍म्ब केँ स्प र्श करएबला कवि‍ता सभमे सेहो छायावादि‍ताक आवरण लागल रहैत अछि‍। ऐ ओहारक मध्ये बि‍न्दुत दर बि‍न्दु‍ प्रवेश करब कि‍नको लेल दुष्कार, तँए कवि‍ताक वास्तववि‍क दृष्ट कोणकेँ कवि‍-छोड़ि‍ कि‍यो नै बूझि‍ सकैत छैक।

“सरस्विती वंदना” कोनो देवोपराध क्षमा मंत्र नै, आ ने पारम्पपरि‍क सनातन संस्कृ‍ति‍क अवलम्ब केँ स्पमर्श करैत भक्तिे‍गीत। ऐ वन्द नामे समाजक असंतुलि‍त दशाकेँ समाप्तव करबाक लेल बुधि‍क देवीकसँ याचना कएल गेल अछि‍। कि‍छु वि‍शेष दि‍वसकेँ देवोपासनाक लेल चयन आ तात्काललि‍क आस्थाव कोनो भक्तिु‍क श्रद्धा नै, एकरा कवि‍ आडंवर मानने छथि‍। साम्यावादमे आस्तिभ‍कता वि‍शेष पंथसँ संबंध नै रखैत अछि‍। कर्म प्रधान वि‍वेचन कवि‍क कोनो कवि‍ता मात्रमे नै ई अर्न्तछआत्मामक ज्वा‍र थि‍क। मात्र एक दि‍न वर्ष भरि‍मे बुधि‍क आवरहन आ शेष दि‍वस-राति‍मे कुमार्गपर चलैत रहबामे संस्कामरक पराभव अवश्य म्भासवी हएत। तँए सरस्वकतीसँ प्रति‍क्षण आ प्रति‍पल संग रहबाक प्रार्थना कएल गेल अछि‍। कर्म आ ज्ञानक सराबोरि‍ जौं नै हएत तँ सि‍नेहसँ सि‍नेह स्पआर्श नै कऽ सकैछ। जेना महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ “अपन करम फल हम उपभोगव तोहि‍ कि‍ए तेजह पराने सखि‍ हे मन जनि‍ करुऊ मलाने......” लि‍खि‍ कर्म फलक मूल्यांहकनमे कर्त्ताक कर्त्तव्युकेँ आधार बनेने छथि‍। जगदीश सेहो कहैत छथि‍-
“जे हूसल से हम्म र हूसल
तइले कि‍अए छी कलहन्तल
सभ जागैए सभ सूतैए
एक दि‍न हेतै सबहक अंत....”

ऐमे याचक भगवती सरस्वबतीसँ कि‍छु वि‍शेष नै मँगैत अछि‍ मात्र सत्कयर्मक बाटपर चलबाक दि‍शा ि‍नर्देशक आश रखैत अछि‍। जौं ऐमे ओ हूसि‍ जाएत तँ भगवानक संग-संग आन ककरो दोख नै।

कामना तँ सभ करैत अछि‍ मुदा ओकरा कर्मक पतवारि‍सँ जौं ि‍नत्ये आगाँ नै बढ़ाएल जाए तँ प्रति‍स्परर्द्धाक युगमे पाछाँ रहब प्रासंगि‍क अछि‍। सबहक आगाँ आ पाछाँक बाट सुन्न नै, सभ ठाम जीव अपन अस्तिढ‍त्वकक रक्षार्थ ि‍नरंतर लागल छथि‍ ऐमे वि‍जयश्री ओकरे भेटत जेकर चंचल मन रुढ़ रहत आ भीड़-भार देखि‍ उजगुजाएत नै-
“टुटि‍ते लाट धरासँ
भीड़े-भीड़ बनैत रहैत
एक्के-दुइये भीड़ टपैमे
भीड़ेमे भरमति‍ रहैत....”
कर्त्तव्यरनि‍ष्ठड व्येक्तिभ‍केँ हंस जकाँ दुग्धन आ नीरमे वि‍भेद करबाक प्रयोजन कि‍एक तँ हरि‍-हरी सन सहचरी कखनो नारायण कखनो बेग तँ कखनो साँप सेहो भऽ सकैत अछि‍। 
ऐ प्रकारक काव्य  सामान्यस बहुत आकर्षक आ सुस्वाखदु नै भऽ सकैछ मुदा नि‍ष्‍ि‍क्रय जीवन भेलापर अलात अनि‍वार्य। जेना भूमि‍गत जल पीबाक योग्यक होइत अछि‍ मुदा आसुतजाल कंठसँ पीअल नै जा सकैछ कि‍एक तँ ओ सीरम थि‍क। वएह सीरम नाद आ स्ना युमे नाद आ स्नाययुमे ि‍नर्जलीकरणक स्थिन‍ति‍मे सोडि‍यम आ क्लो रीन मि‍ला कऽ नस द्वारा सूई भोंकि‍ शरीरमे चटाओल जाइछ। तँए जगदीशक कवि‍ता हास्यक आ प्रीति‍क मंचसँ थपरी बजएबलाक लेल भलहि‍ं उपयोगी नै होनि‍ मुदा ऐमे छुच्छ  तत्वँ भरल छैक तँए मृतक समान भऽ रहल समाजक लेल एकरा सीरम अवस्थाऐ मानल जाए।
ऋृतु वर्णन बहुत रास कवि‍तामे भेटैत अछि‍ मुदा “अगहन” कवि‍ताक माध्यसमसँ कवि‍क ऋृतुक वि‍वेचन अत्य न्त” वि‍लक्षण छन्हि ‍। “समय पाठ तरूवर फले, केतक सींचो नीर” जकाँ कवि‍ अगहन केर आ वाहनमे कि‍सान जकाँ उताहुल नै छथि‍। जखन धान लबालब शीशसँ धराकेँ स्प र्श करए लगैत अछि‍, तँ कि‍सान मजूरक धैर्यक बान्हध टुटब स्वाशभावि‍क। मुदा कवि‍ धैर्य धरबाक लेल आगाह करैत छथि‍-
“तीन दि‍न, आठ अगहन वाॅकी
धड़फड़ बेसी नै अगुताउ
धीरजसँ सभ कि‍छु होइ छै
तइ बीच घरक काज सरि‍आऊ....”

स्वा भावि‍क छैक कृषि‍ प्रधान देशमे कि‍सान मजदूरक जीवि‍काक साधन कोनो सभ मासक वि‍शेष तारि‍खकेँ नौकरि‍हारा जकाँ धनसँ कऽ नै अबैछ। बरख भरि‍क मेहमति‍ आ पसीनाक गंगा जखन बान्ह  तोड़बाक लेल उफान तोड़ि‍ रहल तँ कवि‍क ि‍नर्देश जे घरक आन काज सभ सरि‍या कऽ पहि‍ने खरि‍हान बनाएल जाए एकटा यथार्थ प्रयोगवाद मानल जा सकैछ। रातुक नाच देखबाक लेल दर्शक लोकनि‍ गाम-गाममे सपरि‍वार जाइत छलाह मुदा ओ कृत्रि‍मतासँ भरल, कि‍एक तँ भोर होइते जखन कलाकारक रूप बदलि‍ जाइत छै तँ दर्शकक कोन ठेकान ओतए ठका गेल। मुदा चौकीपर धम्मो–धम्मक जखन चानक बोझ पड़ि‍ चष्टाूएल बहार भऽ जाइछ कि‍सानक नाच कर्मफल बनि‍ कोठीमे भरि‍ जाइत अछि‍। ई चौकी स्टे्ज नै ऐठाम मान सम्मा नक माने आजीवि‍काक फल आ अर्थक आवाहन। एहू कर्ममे लोक सभ परानी हांसू लऽ कऽ खेत दि‍श जाइत अछि‍ मुदा अन्नपूर्णाक संग अपन घर घुरैत अछि‍। बनाबटी नाचमे टका अर्थात् अन्नपूर्णाक संग जाइत तँ अछि‍ मुदा घुरबाक काल खाली हाय अपन आंगन आ बथान वापस अबैत अछि‍।
मनोरंजन तखने नीक जखन कर्मक गति‍ प्रखर हुअए कवि‍क ऐ शि‍क्षामे समाजक वास्तूवि‍क रूप-रेखा दृष्टि ‍ पटलपर उभरि‍ कऽ समक्ष आबि‍ गेल। ऐ प्रकारक संदेश ऋृतु वर्णनक माध्यपमसँ मैथि‍ली साहि‍त्यामे संभवत: पहि‍ने नै भेटल हएत। ग्राम्य् जीवनक वृत्ति‍ चि‍त्रक ि‍नर्देशक वएह भऽ सकैत अछि‍ जे गामक संस्कायर आ व्यिवस्था केँ आत्मकसात कऽ नेने हुअए।


जीवन तीनू मौि‍लक गुण सत्वत रज ओ तमक दार्शनि‍क अवलोकन मैथि‍ली गद्य साहि‍त्य मे “खट्टर ककाक तरंग” रूपेँ प्रो. हरि‍मोहन झा कएने छथि‍, मुदा गंभीर चि‍न्त नकेँ हास्यतक बि‍हाड़ि‍मे उधि‍या देलासँ एकर प्रासंगि‍कता ओइठाम नि‍ष्क्रित‍य भऽ गेल। ऐ कमीकेँ जगदीशजी “तरंग” कवि‍तामे पूर्ण कऽ देलनि‍। तरंग कोनो जल तरंग नै जीवन क्रि‍याशीलता ओ शैलीक तरंग थि‍क। एकटा कहबी छैक जेहने छलि‍अ हौ कुटुम तेहने भेटलऽ हौ कुटुम- वास्तजवमे जीवन क्रीड़ाक मैदानमे जेहेन दृष्टिु‍कोण रहत ओहने खेलबाक खेलौना भेटत।

आइ धरि‍क मैथि‍ली काव्यक जगतमे जे कमी खलैत अछि‍ ओ थि‍क रचनाकारक जीवनशैली ओ रचनाक तारतम्यीक अभाव। संभवत: जगदीशक कवि‍ता पढ़ि‍ पाठक कवि‍क दृष्टिल‍कोणपर प्रश्नकचि‍न्हद नै ठाढ़ कऽ सकैत छथि‍। शैक्षणि‍क पाठ्यक्रममे कोनो चर्चित व्यगक्तिी‍ जीवन परि‍चय मात्र सकारात्मीक दृष्ट्कोणकेँ पनकबैत देल जाइत अछि‍। प्राथमि‍क आ माध्यवमि‍क शि‍क्षामे समालोचना छात्र नै कऽ सकैत अछि‍, ओइमे मर्यादाक बान्हदकेँ नाङब संभव नै। मैथि‍ली साहि‍त्य्मे संभवत: एहि‍ना होइत रहल अछि‍। व्यीक्तिक‍गत वा कि‍छु खास वर्गकेँ महि‍मामंडि‍त करबाक क्रममे अधि‍कांश साहि‍त्यसकार समाजक वास्त वि‍क वृति‍चि‍त्रकेँ झाँपि‍ देबाक प्रयास करैत छथि‍न्ह । ऐ दुर्भाग्य सँ साहि‍त्या कलंकि‍त तँ होइत रहल मुदा कि‍नको एकर क्षेभ नै। सभ शब्दा समंजन आ आत्मय संतुष्टिि‍मे लागल छथि‍ कि‍एक तँ आत्मै संदृष्टिस‍क रूप वि‍चि‍त्र भऽ गेल छैक।
जगदीश जीक काव्य्मे ई सभ नै भेटत कि‍एक तँ हि‍नक दृष्टिऽ‍कोण साफ छन्हि ‍ ई सामाजि‍क वि‍डंबना आ वि‍षमताकेँ झाँपि‍ कऽ नै राखए चाहैत छथि‍। आब ि‍नर्भर करैत छैक जे समाज हि‍नक दृष्टिा‍कोणकेँ कतए धरि‍ मोजर देतन्हिि‍-
सत बनि‍ कखनो राज वि‍राजए
रज बनि‍-बनि‍ शासन करए
धरि‍ते धारण तम तम-तमा
झहरि‍-झहरि‍ फुनगीसँ गि‍रए....

ऐ पद्यांशमे गि‍रए केर स्थागनपर खसए रहबाक चाही मुदा गि‍रए वा खसए जे लि‍खल जाए ई तँ अक्षरश: सत्यब अछि‍ समाजक परि‍दृश्यलमे अधोगति‍ शि‍खरकेँ छूबि‍ लेलक। “बान्हमसँ खाधि‍ ऊँच” अनि‍श्च्यवाचक लोकोक्ति ‍ छल मुदा मि‍थि‍लाक समाजमे आब ई नि‍श्चि‍यवाचक भऽ गेल। अंग्रेजीमे कहबी छै “Nature and signature remains constant” मुदा मि‍थि‍ला क्षेत्र एकर अपवाद ि‍थक। मंचीय भाषणमे जीवन शैलीक उद्वोधन कतबो साफ रहए मुदा वास्तiवि‍क रूप कि‍छु आर भेटैत अछि‍।
वि‍वादि‍त पृष्ठेभूमि‍सँ जगदीशजी कतबो दूर होथि‍ मुदा साहि‍त्य कार कुकर्मीक हाथसँ फेकल अक्षतकेँ माॅथसँ लगा कऽ सम्यवक जीवनक कतबो उद्वोधन करए परंच जखन लेखनी उठाएत तँ सत्य् अवश्यज परि‍लक्षि‍त भऽ जाएत। “नङरकट घोड़ा” एकर प्रत्य क्ष प्रमाण मानल जाए। कवि‍ समाजसँ मात्र सि‍नेह चाहैत अछि‍। कोनो आत्मि्‍क कवि‍ स्वासर्थी नै आ ने ओकरा समाजसँ पि‍रही वा सम्मा्नक आश... ओ तँ मात्र चाहैत अछि‍ जे वि‍द्वतमंडली ओकर रचनाकेँ जन-जन धरि‍ पहुँचा कऽ ओकर दृष्टिि‍कोणकेँ परि‍लक्षि‍त करथि‍। जकर अभाव मैथि‍ली साहि‍त्य क वास्तकवि‍क रूपकेँ पाठक धरि‍ पहुँचबा रहल अछि‍। अर्थात् ऐ साहि‍त्यओमे पारदर्शीकेँ कहए पारभासक समालोचक सेहो एखन धरि‍ नै आएल छथि‍। 
“गीत-1” द्वारा कवि‍ एकटा ि‍नर्भीक समालोचकसँ मैथि‍ली साहि‍त्य क रक्षाक आश रखैत छथि‍ ई संभव हएत वा नै ई तँ भवि‍ष्य क वि‍षय थि‍क मुदा जगदीशजी इंद्रधनुषी अकासक द्वारा की देलनि‍ ऐपर मंथन कएलासँ उत्तर आधुनि‍क मैथि‍ली काव्यल जगतकेँ अवश्यथ स्वनस्थर चि‍न्तकन भेटत। 

पोथी समीक्षा: गामक जिनगी : आधुनिकताक समस्या ( आलोचना ) :समीक्षक आशीष अनचिन्हार

जागरण, पुनर्जागरण वा नवजागरण दुनियाँक हरेक हिस्सामे अपना समय पर होइत एलैए मुदा ओकर व्याख्या हरेक समयमे अलग-अलग ढ़गसँ होइत छै। एकटा घटना जकरा पहिल लोक जागरण मानैत अछि तँ दोसर ओकरा पुनर्जागरण मानैत अछि तँ तेसर नवजागरण। आ एही तीनूक दृष्टिकोणक व्याख्यासँ आधुनिकताक सूत्रपात होइत छै।

पश्चिमक पुनर्जागरणसँ प्रभावित मनुख सभ सुविधाकेँ अपना नाम कए लेलक। ई पुनर्जागरण मात्र सुविधा नै बल्कि हमर सभहँक मान्यता, भावना, विचार, आचरण, व्यवस्था आदिमे सेहो परिवर्तन केलक। एही पुनर्जागरणक कारण परस्पर विरोधी संस्था आ व्यवस्थाक जन्म भेल। राष्ट्रीय आ अंतरराष्ट्रीय सत्ता एवं नियंत्रणक चालि-चलन आएल। आ एही कारणें परंपरागत आस्था आ प्रेर मूल्यमे कमी आएल।साहित्य आ कलाक क्षेत्रमे अतियथार्थवादक जन्म भेल, साझी आश्रमक विघटन भेल आ मनुख एकौर भए गेल जाहि कारणें मनुखक विवेक आ आत्मनियंत्रणमे कमी आएल।

महानगरसँ होइत नग्र आ गामक संबंध जटिल बनि गेल छै। जीबनमे नीरसता, असुरक्षा, दुश्चिन्ता, विक्षिप्ता आदि बढ़ि गेल छै। नव-नव बेमारी उपकि रहल छै खास कए हृद्य रोग,बल्डप्रेसर आ अनिन्द्रा। तहिना लोकक रुचि सेहो बदलि गेल छै। जतेक तेज गीत-संगीत बाजत ओतेक नीक मानल जाइत अछि। तेनाहिते साहित्यमे सेहो अभूतपूर्व परिवर्तन भेल अछि। अपराध कथा, सत्यकथा, आ मनोहर कहानी सन साहित्य केर डिमांड जोर पर अछि। आ ऐ तरहें मनुखक जीवन शैलीमे सेहो परिवर्तन भए रहल अछि। संगे संग मनोवृतिमे बहुत बेसी। आजुक समयमे मनुख लग ने सहनशीलता छै आ ने बात बुझबाक समय। आ एही दुआरे आब लोक बात-बात पर हतोत्साहित भए जाइत अछि। आशा,उम्मेद जाहि कौआ केर नाम छै से आब केकरो टाट पर नै कुचरैए।



एखन हम साल 2006मे बनल आ मे गिब्सन द्वारा निर्देशित फिल्म एपोक्लिप्टो बाइसम बेर देखि कए उठलहुँ अछि। ई फिल्म मेक्सिको केर भाषामे जकर नाम Yucatec छै आ "माया" सभ्यता पर आधारित छै। ऐ फिल्मक शुरुआतमे एकटा कबीला अपना गाममे शांतिपूर्वक खा-पीक आनंद मना रहल अछि। तखने दोसर कबीला दिससँ हमला भेलै। पहिल कबीला हारि गेल आ ओकर गामकेँ जरा देल गेलै। नायक सहित अधिकांश आदमीकेँ बन्ही बना लेल गेलै। मुदा गर्भवती नायिका अपन एक मात्र बच्चाक संग बचि निकलैत अछि आ सुरक्षा लेल गँहीर खत्तामे शरण लैत अछि। बंदी बनेलाक बाद विजेता बंदी सभकेँ अपना कबीला लए जाइत अछि। भाट भरि नायक अपनाकेँ आ अपन संगीकेँ बचेबाक प्रयास करैत अछि मुदा से सफल नै होइ छै।



एम्हर नायिका जे खत्तामे छै से नाना प्रकारक कष्ट सहैत बच्चा संग समय बितबैत अछि। एकाएक बर्खा अबैत छै आ सेहो झमटगर। नहुँ-नहुँ खत्ता भरए लागैत छै। पानि जखन डाँड़ भरि भए जाइत छै तखन नायिकाकेँ प्रसव पीड़ा होइत छै....................आ ओही पानिमे बच्चाक जन्म होइत छै। नायक अपन संगी सभहँक संग विजेताक राज्यमे आबि गेल अछि। राज्यक हाटमे किछु बंदीकेँ बेचल जाइत अछि आ किछुकेँ राजाक सामने देल जाइत अछि। राजाक सामने उपस्थित भेला पर राजपुरोहित द्वारा पर सूर्यपूजा केला बाद बलि लेल अयोग्य बंदी सभकेँ छाँटि योग्य बंदीकेँ नायकक सामने बलि चढ़ा देल जाइत छै। अंतमे नायककेँ वेदी पर सुताएल जाइत छै कि तखने...........................मेघ झाँपि लेलकै। आ तखने राजपुरोहित सूर्यकोप मानि ओहि दिन लेल बंद करबा देलक। आ नायक बलिसँ एना बाँचि गेल। मुदा मृत्यु एखनो लीखल छलै। नायक सहित सभ बाँचल अयोग्य बंदीकेँ एकटा मैदानमे आनल गेलै आ सभकेँ भागए कहलकै। आ भागैत बंदी सभकेँ निशाना साधि-साधि मारकल। मुदा नायक एतहुँ बाँचल आ भागि पड़ाएल। विजेता सभ ओकर पाँछा केलक आ करैत रहल मुदा नायक भागैत आ बाँचैत रहल। आ भागैत-भागैत नायक समुद्रक कछेरमे पहुँचैत अछि आ देखैत अछि जे ओम्हरसँ एकटा जहाज आबि रहल छै। नायक फेर पाछू तकलक, ओकरा पकड़बाक लेल विजेता तैयार मुदा ओहो सभ जहाजकेँ देखि सहमि गेल छल आ पाछू हटए लागल छल। आ एना नायक बाँचि गेल आ अपन परिवार लग पहुँचल।

ऐ फिल्ममे हमरा सभसँ नीक गप्प लागैए जे हरेक सीन, हरेक कथन आशासँ भरल छै। खास कए तीन ठाम पहिल- जखन खत्ताक पानिमे बच्चाक जन्म होइत छै, दोसर--जखन नायककेँ बलिवेदी पर सुताएल जाइत छै आ तेसर-- जखन नायक जहाज आ अपन दुश्मन बीचमे रहैत अछि।

ई कथानक पढ़लासँ आशाक कनेकबे दर्शन भेल हएत। फिल्म देखू हरेक शाट आशामे भीजल छै। ई फिल्म आधुनिक कालक थिक मुदा जखन कालिदास मेघदूत लिखला तखन की सोचि यक्ष द्वारा मेघकेँ दूत बनेलाह। मेघ निर्जीव छै ई बात कालिदासकेँ पता छलन्हि आ नायक यक्षकेँ सेहो। की ई आशावादक चरम नै थिक। आ जा धरि मेघ यक्षणी लग समाद लए पहुँचैत अछि ता धरि श्रापक समय खत्म। बात जखन मैथिल कोकिल विद्यापतिकेँ ( ओ विद्यापति जे की गीत लिखला) तखन हुनक गीतमे भक्ति आ श्रृंगार जतेक रहैए ताहिसँ बेसी आशा रहैत अछि। किछु भए जाए विद्यापति अपन आशाकेँ नै छोड़ै छथि। चाहे पति परदेशमे होथिन्ह मुदा ओ नायिकाकेँ जरूर कहै छथिन्ह जे चिन्ता नै करह तोहर प्रिय जरूर अबिते हेतह। एहन बहुत उदाहरण अछि, किछु देखल जाए----



1

लोचन धाय फोघायल हरि नहिं आयल रे !

सिव-सिव जिव नहिं जाय आस अरुझायल रे !१!

….......................................

सुकवि विद्यापति गओल धनि धइरज धरु रे !

अचिरे मिलत तोर बालमु पुरत मनोरथ रे !४!



2

कान्ह हेरल छल मन बड़ साध !

कान्ह हेरइत भेलएत परमाद !१!

…...................

विद्यापति कह सुनु बर नारि !

धैरज धरु चित मिलब मुरारि !७!



3

के पतिआ लय जायत रे, मोरा पिअतम पास !

हिय नहि सहय असह दुखरे, भेल माओन मास !१!

…........................

विद्यापति कवि गाओल रे, धनि धरु मन मास !

आओत तोर मन भावन रे, एहि कातिक मास !४!

ई मात्र किछु उदाहरण अछि। उपर जतेक गीत हम देलहुँ ताहिमे गौर कए देखू भक्ति आ श्रृगांर तँ मात्र बहन्ना छै। मूल बात तँ छै आशा देब, केकरो नोर पोछब। भक्ति आ श्रृगांर विद्यापतिक गीतमे मात्र साधन अछि साध्य नै। साध्य तँ छै निराशाकेँ हटाएब। विद्यापतिक गीतकेँ बहुत आलोचना भेलभक्ति आ श्रृगांरक चश्मा लगा मुदा आशावादक दृष्टिकोणसँ संभवतः ई पहिल आलोचना अछि ( जँ पहिले केओ केने हेताह आ प्रकाशित हेतै तँ एकरा हमर अज्ञानता बूझल जाए)। आ तँए विद्यापति हमर प्रिय कवि छथि। बात जखन लोकगीतक करी तँ एही आशा केर कारण " सोहर " हमर प्रिय गीत अछि। आ जखन हमरा लग किछु नै बचैत अछि तखन बेर-बेर हम विद्यापति गीत पढ़ैत-सुनैत छी। सोहर सुनैत छी, मेघदूतक यक्ष बनि जेबाक प्रयास करैत छी आ एपोक्लिप्टो देखैत छी।



आइसँ तीन साल पहिने हमरा गामक जिनगी पढ़बाक मौका भेटल छल। लेखक छथि जगदीश प्रसाद मंडल आ ऐमे कुल 19टा कथा अछि। ऐ पोथीकेँ जाहि तरीकासँ हम पढ़लहुँ से रोचक प्रसंग अछि। भए सकैए जे ई प्रसंग अहाँ सभ लेल नीरस हो आ एकरा आलोचनाकेँ कमजोर कड़ी सेहो मानी मुदा हमरा बुझने आलोचना तखने सार्थक होइत छै जखन की कोनो पोथी मात्र " पाठक "क दृष्टिकोणसँ पढ़ला बाद आलोचकीय विवेकसँ लिखाइत हो। ऐठाम तँ किछु समीक्षक पोथीक नाम लिखै छथि, कथा पात्रक नाम आ घटना लीखै छथि आ अंतमे प्रकाशक नाम, पोथीक दाम आदि लीखि आपना आपकेँ समीक्षक मानि लै छथि। वस्तुतः ऐ प्रकारक आलेखकेँ पोथी परिचय तँ मानल जा सकैए मुदा समीक्षा वा आलोचना नै।

तँ आबी कने अपन प्रसंग पर। अपान कम्पनीक टेन्डर भरबाक लेल हरिद्वार गेल छलहु भेल( BHEL ) मे। मात्र भरबाके नै छल बल्कि पूरा रेट हमरे तय करबाक छल। हम अपन बुद्धि हिसाबें रेट तय कए टेन्डर जमा कए देलिऐ। लगभग दस बजे रातिमे जखन टेन्डर खुजलै तखन पता लागल जे ओ हमरा हाथसँ निकलि चुकल अछि। हमर कम्पटीटर हमरासँ पाँच लाख कम रेट देने रहै। कुल मिला ओहि समयमे हम हतोत्साहित भए गेल छलहुँ। ई अलग बात जे तखनसँ एखन धरि हम 118टा टेन्डर जमा कए चुकल छी आ ओहिमेसँ 44टामे सफल सेहो भेलहुँ। मुदा हरिद्वारमे हम असफल भेल छलहुँ। मोन दुखी छल। मुदा ऐ घटना पर हमर कोनो वश नै छल। कुल मिला दू बजे रातिमे बस पकड़लहुँ। निन्न हेबाक प्रश्ने नै। हारि-थाकि कए ई पोथी निकाललहुँ ( हमर बैगमे हरदम किताब, हाजमोला आ मंच नामक चाकलेट रहैए ) आ सोझे-सोझ बीचक कथा " चूनबाली"क अंतिक पन्ना नजरि पर पड़ल आ ताहूमे अंतिमे पाँति सभ पर............................" फुलियोक नजरि मटकुरियाकेँ मुसकियाइत देखलक। एकटकसँ एक दोसराक आँखि गरौने अपन जिनगी देखए लगल"

आ कि हमरो अपन जिनगी देखाए लागल। पूरा कता पढ़ि गेलहुँ। आ तकरा बाद पलथी ( बसक सीट पर पलथी मारि बैसब खतरनाक होइ छै ) मारि शुरू केलहुँ आ गुड़गाम अबैत-अबैत खत्म। सभ कथा पढी गेलहुँ। एक-एक पाँति पढ़ि गेलहुँ। मुदा हरेक कथाक अंतिम दू-तीन पाँति बहुत नीक लागल। कारण ई पाँति सभ हमर नोर पोछबाक काज केने रहए। ओहन समयमे जखन की हम अपन असफलता पर दोसर नग्रमे कनैत रही तखन " बिसाँढ़"क पाँति आएल " सुगिया दिस.........................परानी विदा भेल "। जखन हम दोसरक आशा चाहैत रही तखन " पछताबा " केर पाँति आबि गेल " पतिक............. गिनगी देखए लगलीह"। जखन हम ई सोचैत रही जे आब हम अपन सीनीयर लग की कहबै तखन हमरा लग " भेंटक लावा " केर पाँति आएल " मुँहसँ ठहाका............कैंचा गनए लगल"। मतलब जे हरेक कथा हमर नोरकेँ पोछबाक काज केलक। हमर हाथ पकड़ि उठेबाक काज केलक। आ तँए हमरा ई पोथी मेघदूत, पदावली, सोहर आ एपोक्लिप्टो नाकम फिल्मक आधुनिक स्वरूप लगैए। अर्थात कहबाक ई मतलब अछि जे जगदीश प्र.मंडल कालिदास, विद्यापति, सोहर पदक अज्ञात रचनाकार आ मेल गिब्सनक आधुनिक अवतार छथि। ऐठाम प्रस्तुत पोथीक आर बहुत रास विशेषता छै। जँ अहाँ महात्मा गाँधीक स्वराज दर्शन बूझए चाहैत छी तँ " गामक जिनगी " पढ़ू। जँ राजाराम मोहन रायक कुरीति भगेबाक अवधारणा चाही तँ " गामक जिनगी " पढ़ू। जेना सरदार पटेल राज्यसँ राज्यकेँ जोड़लाह तेनाहिते जगदीश जी गामकेँ गामसँ जोड़लाह आ ताहूसँ बेसी ओ लोककेँ लोकसँ जोड़बाक पक्षमे छथि। जँ गीताक कर्तव्य चाही तैयो " गामक जिनगी " पढ़ू आ जँ सन्यासक क्रम बुझबाक हो तैयो " गामक जिनगी " पढ़ू। कुल मिला कए ई पोथी हमरा हिसाबें डिप्रेस्ड आदमीकेँ समान्य करबाक क्षमता रखैए।

आधुनिकतासँ जन्मल जते समस्या छै ताहिमे ई डिप्रेशन सभसँ बेसी खतरनाक छै ( कारण चाहे जे हो )। एहन समयमे जँ " गामक जिनगी " पढ़ल जाए तँ अपेक्षित लाभ भेटतै। ओना ई आशावादी दृष्टिकोण जगदीश जीक हरेक रचनामे भेटत आ ताहिमे एकटा प्रमुख नाम थिक हुनक उपन्यास " उत्थान-पतन "। तँए हम पाठक सभसँ ई अपेक्षा रखैत छी जे जगदीश जीक हरेक रचनाकेँ ऐ दृष्टिकोणसँ पढ़थि...... एना केलासँ निश्चित रूपें समाजक भलाइ हेतै।

समीक्षा- जीवन-संघर्ष समीक्षक :: दुर्गानन्‍द मण्‍डल




मैथि‍ली साहि‍त्याकाशमे एकटा एहेन नक्षत्र जे अद्रा नक्षत्र जकाँ सुधी पाठककेँ सभ तरहेँ मनोरंजनसँ लऽ आदर्शवादी समाज, व्यक्ति‍‍, व्याक्तिक कुत्सिष्‍त एवं दमि‍त भावना, मनमे उठैत वि‍भि‍न्न प्रकारक समस्या आ ओकर नि‍दानक रूपमे भरि‍पोख मार्ग दर्शन करैत अछि‍, जीवन-संघर्ष। जीवन संघर्ष थि‍क आ संघर्षे जीवन। जौं जीवन अछि‍ आ जीवनमे संघर्ष नै तँ ओ जीवन जीवन नै। तहि‍ना जदी संघर्ष अछि‍ तँ ओ संघर्षे जीवन थि‍क। एक-दोसराक बि‍ना दुनू शब्द अक्षुण्न सन बुझना जाइत अछि‍। जीवन अछि‍ तँ संघर्षसँ अपने बचि‍ नै सकै छी आ जौं संघर्षेकेँ जीवन मानि‍ लेब जीवन थि‍क। अर्थात् जीवन-संघर्ष उपन्यास अपन संज्ञाक अनुसार आदि‍सँ अंत धरि‍ खड़ा उतरल अछि‍। सम्पूर्ण उपन्यासमे जे पात्र लोकनि‍ छथि‍ ओ कखनो संघर्षसँ अलग नै भऽ सकला अछि‍। जे संघर्षकेँ स्वीरकार कऽ लेलन्हि ‍ हुनका जीवनक लेल एक नै अनेको बाट स्वागतार्थ प्रकृति‍क संग नैसर्गिक सुख लऽ उपस्थित भेल।



उपन्यासकार एकटा लब्ध प्रति‍ष्ठित जाहुरी जकाँ वि‍भि‍न्न प्रकारक संघर्षकेँ जे देखौलन्हि तँ ओकर समाधानो तकबामे कतौ पाछाँ नै रहला। जीवनमे संघर्षक समाधाने तँ जीवनक अभि‍प्राय थि‍क। ऐ बातकेँ स्पष्ट‍ करबामे उपन्यासकार शत-प्रति‍शत सफल भेलाह। उपन्यासक आदि‍येमे उपन्यासकार बँसपुरा गामक एक गोट नववि‍वाहि‍त यौवना जे जीवनक आ यौवनक सुआद मात्र बुझने हेतीह। गामक सटले आयोजि‍त दुर्गापूजाक मेला देखए गेलीह। गनगनाइत मेला चहुओर लॉडस्पीकरक गगनभेदी आबाज चरि‍कोसि‍क नीन्न उड़ेने, गामक तीनटा लफुआ छौड़ा बहला-फुसला कऽ भनडार घर लऽ जा हुनका संग बलत्कार.....। समाजक सामंतवादी व्यवस्थाक ज्वलंत उदाहरण अछि‍। आखि‍र ऐ तरहक जे बेवस्थाक  हमरा समाजक बीच बाल-बच्चामे व्याप्त अछि‍ जे माए-बहि‍नक संग बलात्कारक संग प्रस्तुत हुअए तखन इज्जत केकर बँचि‍ पाओत? के इज्जतदार रहताह? एकटा प्रश्नचि‍न्ह छोड़बामे उपन्या्सकार पूर्णत: सफल भेलाह अछि‍।



समाजमे व्याप्त ई जे कुबेवस्था  अखनो अछि‍ नि‍श्तुकी ओ हमरा सभकेँ लज्जित करबामे कनि‍यो धोखा-धड़ी नै। जइसँ संभव अछि‍ जे समाजक ऐ कुबेवस्थासँ गाम-घरक धारमे पानि‍क बदला शोनि‍त बहए लागत। उपन्यासकारक उपन्‍यासक उदाहरणसँ स्पाष्ट जे पत्नी-बेटीक मुँहक बात सुनैत-सुनैत पति‍केँ कहलक- “जहि‍ना हमर बेटीक इज्जत सि‍सौनीबला लुटलक तहि‍ना सि‍सौनीक दुर्गास्थानमे मनुखक बलि‍ परत।”

मुदा बाह-रे उपन्यासकार! जखन सम्पूर्ण बँसपुराबला सि‍सौनीबलाकेँ कचरमबध कऽ लहाशक ढेरी आ शोनि‍तक बहबैले तैयार रणक लेल शंखनादक ध्वनि‍, लाठी, फरसा, ग्रांस लऽ मरै आ मारैले सि‍सौनी दि‍स बि‍दा भेल तखन गामक सभसँ बेसी उमेरक मनधन बाबा द्वारा रस्तापर चेन्ह दऽ ई कहब- “ऐ ढाँहि‍सँ जौं कि‍यो एक्को डेग पएर आगाँ बढ़ेबह तँ हम एत्ते प्राण गमा देब।”

मनधन बाबाक ई एक वाक्य, आगि‍मे पानि‍क काज केलक। सभ शान्त भऽ जाइ छथि‍।



तखन सि‍सौनी दुर्गापूजाक प्रति‍रूप बँसपुरामे कालीपूजा ठानल गेल। अध्य‍क्ष, उपाध्यक्ष चुनल गेलाह। एक्कैस आदमीक कमि‍टी बनाओल गेल। कोनो काज हुअए ओ सर्वसम्मपति‍सँ हुअए। ऐठाम उपन्यासकार सामाजि‍क सद्भावनाकेँ स्पष्ट करबामे शत-प्रति‍शत सफल भेलाह। जे उत्तर आधुनि‍क कालक मध्य‍ उन्नत समाजवादी दर्शनक कसौटीक झलक सहजहि‍ भेल। समाजकेँ आगाँ बढ़ेबामे दसगर्दा काज जरूरी अछि‍। जाधरि‍ लोकक मनमे दसनामा काजक प्रति‍ झुकाउ नै हेतैक ताधरि‍ समाज आगू मुँहेँ बढ़त केना? समाजेक बीच मंगल सन सोझमति‍या लोक अछि‍ तँ गणेश सन ठकहर सेहो। जइ संबंधमे उपन्यासकार कहए चाहैत छथि‍- “एक्के कुम्हारक बनाओल पनि‍पीबा घैल सेहो छी आ छुतहरो। मुदा देखैमे दुनू एक्के रंग होइ छै।”



उपन्यासकारक नजरि‍ लगि‍चाइत अमवसि‍या दि‍न साँझे दि‍वाली आ नि‍शा राति‍मे कालीपूजा। गाममे आएल धी-बहि‍नसँ बेसी साइरे-सरहोजि‍, तहूमे परदेशि‍या सारि‍-सरहोजि‍ आबि‍ कऽ गामक तँ रंगे बदलि‍ देलक। मेलाक लेल मुजफ्फरपुरसँ नाटक आ मेल-फि‍मेल कौव्वालीसँ लऽ महि‍सोंथाक नाचक आयोजनक संग वि‍भि‍न्न प्रकारक दोकान सभपर नजरि‍ सेहो छन्हि। मेलामे वि‍भि‍न्न प्रकारक दोकानक बीच, चेस्‍टरबला दोकान सेहो उपन्यानसकारक नजरि‍सँ नै बचि‍ सकल तँ दोसर दि‍स रमेसरा सन लोकक ई कथन- “धूर बूड़ि‍ दि‍ल्लीस तँ हौआ छि‍ऐ।”

अर्थात् पलायनवादी संस्कारकेँ चुनौती दैत गामेमे आयोजि‍त कालीपूजामे बाजार देखि‍ चारि‍-पाँच हजारक समान बनौलक। जे नोकर नै बनि‍ मालि‍क बनब! कतेक पैघ स्वाभि‍मानक परि‍चायक अछि‍? एवं प्रकारे वि‍भि‍न्न प्रकारक जाति‍ वि‍शेषसँ जुड़ल व्यवसायपर बल दऽ ग्रामीण उद्योगकेँ बढ़ाबा देलन्हि ,‍ जे सम्राज्‍यवादी प्रदुषणकेँ साफ करैत अछि‍।



ऐ प्रकारे उपन्यासक सार समस्त मि‍थि‍ला आ मैथि‍ल समाजक समस्याकक चि‍त्रण करै छथि‍। समाजक बीच व्याप्त वि‍भि‍न्न प्रकारक समस्या जे खाहे पलायनवादी होइ वा कि‍सान मजदूरक। सरकारी मसोमातक होइ वा सामाजि‍क मसोमातक। वि‍भि‍न्न प्रकारक जाति‍ वि‍शेषसँ जुड़ल व्‍यवसायसँ हुअए वा कोसी कहरक समस्या। हमरा समाजक बीच धर्मक आड़ि‍मे राजनैति‍क समस्या सभपर उपन्यासकारक दूर दृष्टि छन्हि। खास कऽ वि‍धवाक लेल कएल गेल प्रयासक पाछाँ बूझना जाइत अछि‍ जे उपन्यासकार कोनो-ने-कोनो रूपमे नायकक भूमि‍कामे होथि‍। चूँकि‍ वि‍धवाक समस्याकेँ एतेक लगसँ देखब आ ओतेक बढ़ि‍या समाधान नि‍कालब साधारण व्यक्तिक लेल संभब नै। अधंवि‍श्वासक आड़ि‍मे भगति‍ खेला केकरो शीलभंग करब आ जहल खटब, सेहो उपन्यासकारक नजरि‍सँ नै बचि‍ सकल। समाजेक मंगलक वि‍चार जोगि‍न्दारकेँ नीक लागब आ सामाजि‍क वि‍धवाक सहायताक उपाए करब, कि‍नको नीक लागि‍ सकैत अछि‍। एतबे नै, दुखनीक वि‍चारकेँ दुखनि‍येक शब्‍दमे उपन्यासकार लि‍खलन्हि- “हमहूँ तँ पाइयेबला ऐठीन रहलौं मुदा सभ सुख-सुवि‍धा रहि‍तो ओकरा एहेन नीन कहाँ होइ छै।'' देखै छी जे पेट खपटा जकाँ खलपट छै, भरि‍सक खेबो केने अछि‍ कि‍ नै। तखन जोगि‍न्दिर घुट्ठी हि‍लबैत बाजल-

“काकी, काकी....।” आ मोटरी खोलि‍ जोगि‍न्दनर जोर भरि‍ साड़ी, साया आ एकटा आंगीक संग दसटा दस टकही आगूमे राखि‍ देलक। ऐ तरहक समाजक दबल, कुचलक मसोमात वर्गक सेवाधारीक रूपमे हुनक यथार्थ सेवा भावना ओहि‍ना झलकि‍ रहल अछि‍, जे ओ कतेक पैघ समाजसेवी छथि‍।

ऐ तरहेँ उपन्यासक एक-एक पाँति‍ जीवन-संघर्षक सार्थकताकेँ प्रमाणि‍त करैत अछि‍। पाठककेँ उपन्यास- जीवन एकटा संघर्षक रूपमे बुझना जाइत अछि‍। प्रस्तुत उपन्यासमे सभ तरहक उदाहरण- हँसब, बाजब, कानब, मारि‍-पीट इत्यादि‍सँ लऽ नव उत्सा‍ह, नव चेतना आ नव दि‍शा भेटैत अछि‍। आन कोनो ओझराएल उपन्यासकार जकाँ जि‍नगीकेँ कोनो चौबट्टीपर नै छोड़ि‍ बल्कि एकटा नव सृजनात्मक रास्ता खोजि‍ पाठकक संग समाजोक लोककेँ देखौलन्हि अछि‍। जहि‍ना नदीक पानि‍ अपना जीवनमे अनेको उतार-चढ़ाबकेँ पार करैत अपन बाट अपने‍ बनबैत अछि‍ तहि‍ना प्रस्तुत उपन्यासमे उत्‍पन्न भेल समस्याक समाधान करैत समाजोकेँ एकटा प्रशस्त‍ मार्ग देखबैत नि‍र्विरोध आगाँ बढ़ल जा रहल अछि‍। उपन्यासमे एकटा समस्या नै अपि‍तु अनेको समस्या उपस्थित होइत अछि‍ मुदा ओइ समस्याक स्वत: बुधि‍-वि‍वेक द्वारा नि‍दान सेहो समस्येसँ नि‍कलैत अछि‍। समाजक सभ वर्ग चाहे ओ दुखनी हुअए आकि‍ पवि‍त्री, श्यामा हुअए आकि‍ तमोरि‍यावाली भौजी। नारीक एकटा सशक्त शक्तिक रूपमे देखा उपन्यासकार एकटा कृत केलन्हि ‍अछि‍। सम्पूर्ण उपन्याससमे उपन्यासकार मि‍थि‍ला समाजक सभ्यता एवं मान्यताकेँ देखाएब सेहो नै बि‍सरला अछि‍। मैथि‍ल बेटीक प्रेम माए-बापक प्रति‍ श्यामा द्वारा आनल गेल पाँच गो दलि‍पुरी, एक धारा चाउर, सेर तीनि‍येक खेसारी दालि‍, एकटा उदाहरण अछि‍। ओतबए नै, मसोमात दुखनीक बेटा भुखना द्वारा आनल रूपैयाक गड्डी देखि‍ ई बाजब आ सोचब-

“झाँपह-झाँपह नै तँ लोक सभ देखि‍ लेतह। आखि‍र ढहलेलो अछि‍ तँ बेटे छी कि‍ने।” मने-मन भगवानकेँ गोड़ लागि‍ बाजल- “भगवान केकरो अधलाह नै करै छथि‍न।”



उपन्याँस जेना-जेना आगाँ बढ़ैत अछि‍ सारगर्भित भेल जा रहल अछि‍। पाठक एकसूरे पढ़ैक लेल बाघ्य छथि‍। उपन्यासक मादे भोजनो-भातक धि‍यान नै रहि‍ जाइत अछि‍। अंत: उपन्यासक सारक रूपमे प्रोफेसर कमलनाथ द्वारा प्रस्तुत कथन-

“रतुका घटना दुखद भेल। मुदा ओ काल्हुक भेल। कालक तीन गति‍, भूत, वर्त्तमान आ भवि‍ष्य । जे समए बीत गेल वएह समए वर्त्तमान आ भवि‍ष्यक रास्ता देखबैत अछि‍। ढंगसँ एकरा बुझैक खगता अछि‍। दुखक भागब माने आएब भेल।”



ऐ प्रकारे जीवन-संघर्ष उपन्यास कल्पना नै अपि‍तु यथार्थपर आधारि‍त बुझना जाइत अछि‍। तँए अंतमे ई कहब जे आशाक संग जि‍नगीकेँ आगू मुँहेँ ठेलैत पहाड़पर चढ़ा अकाशमे फेक दि‍यौक। स्पष्ट अछि‍ जे जीवन संघर्ष थि‍क आ संघर्ष जीवन, अर्थात् जगदीश प्रसाद मण्डलक जीवन-संघर्ष। आ प्रकाशक छथि‍ नागेन्द्र कुमार झा जे मैथि‍ली साहि‍त्याकाशमे पोथी प्रकाशनक झंडा फहरा-फहरा कऽ बहुत कि‍छु कहि‍ रहल छथि‍‍। ऐ लेल श्रुति‍ प्रकाशनक संग उपन्यासकारकेँ सेहो दुर्गानन्द तरफसँ बहुत-बहुत साधुवाद।



ऐ रचनापर अपन मंतव्य ggajendra@videha.com पर पठाउ। 

पोथी समीक्षा - अम्बरा समीक्षक डॉ॰ शशिधर कुमर “विदेह”

कोनहु भाषाक जिबैत होयबाक प्रमाण की ? इएह जे जाहि क्षेत्र विशेष मे ओ भाषा बाजल जाइत अछि ओहि क्षेत्रविशेष केर हरेक व्यक्ति (वा अधिकांश व्यक्ति) ओहि भाषा केँ अपन मातृभाषाक रूप मे बजैत हो । “हरेक” मतलब हर वर्गविशेषक लोक – चाहे ओ कोनहु वयसमूहक हो,  चाहे ओ कोनहु जातिक हो, चाहे ओ कोनहु धर्मक हो अथवा कोनहु व्यापार / व्यवसाय सँ जुड़ल हो । मात्र बजैत हो - सएह टा नञि, अपितु ओहि भाषाविशेष मे अपन रचनात्मक ओ सर्जनात्मक योगदान सेहो करैत हो । “मैथिली” केँ सम्पुर्ण रूपेँ ई सौभाग्य आइ धरि कहियो नञि भेँटि सकल । 

               एक दिशि, कोनहु “एक समूह” कोनहु “दोसर समूह” केँ मैथिली नञि बाजय देलखिन्ह वा नञि पढ़ए - लिखए देलखिन्ह आ “मैथिली” केँ अपन बपौती सम्पत्ति बना कऽ रखलन्हि । दोसर दिशि, चुँकि “पहिल समूह” मैथिली केँ अपन बपौती सम्पत्ति कहि देलन्हि तेँ “दोसर समूह” सेहो मैथिली बाजब वा मैथिली पढ़ब – लिखब छाड़ि देलन्हि । मैथिलीक लेल ई परम दुर्भाग्यक गप्प रहल । घऽर - घरारी आ सम्पत्तिक बँटवारा भऽ सकैत छै, माएक नञि; मैथिल लोकनि केँ से बात बुझबा मे बहुत विलम्ब भेलन्हि । कारण जे हो, पर “माए मैथिली” केँ ई सौभाग्य आन समकक्ष भाषाक अपेक्षा बहुत काल धरि नञि भेँटि सकलन्हि । 

                  सम्प्रति खुशीक बात ई जे पछिला किछु वर्ष सञो समय बदलल अछि आ हरेक वर्गविशेषक लोक अपन रचनाशीलता सँ माए मैथिलीक आँचर भरि रहल छथि । शुरुआत मे गति बहुत सुस्त छल आ श्री विलट पासवान “विहंगम” वा स्व॰ फजलुर्रहमान हासमीजी सन एक – आधहि टा नऽव नाम देखबा मे अबैत छल पर आइ एहेन नाँव सभक संख्या बहुत तेजी सञो बढ़ल अछि । एहने एक गोट वरिष्ठ रचनाकार छथि श्री राजदेव मण्डलजी । आइ हुनिकहि लिखल एक गोट काव्य संग्रह “अम्बरा” केर समिक्षा लऽ कऽ हम अपनेक सोझाँ उपस्थित छी ।

               “अम्बरा” - रचनाकारक गोटेक पचहत्तरि टा काव्य रचना केँ अपना मे समाहित कएने अछि । सभटा कविता “अमित्राक्षर छन्द” मे अछि । पर डेरएबाक काज नञि; “अमित्राक्षर छन्द” रहितहुँ “मित्राक्षर छन्द” केर रचना सन प्रतीत होयत आ पढ़बा मे ओहने लयबद्ध आ रुचिगर लागत । यथा :-

अहाँ कहैत छी – कायर बनबसँ नीक
हिंसक भऽ जाएब से अछि ठीक
लोक कहत - वाह-वाह
किन्तु हमरा लगैत अछि ई अधलाह ......................... “अहिंसक वीर”

              बिनु उचित शब्द केर भाव मरि जाइत अछि आ बिनु भावक शब्द तँ शब्दकोशहि बुझू । पर ई दोष एहि कविता संग्रह मे कतहु देखबा मे नहि आओत । उचित शब्द ओ समीचीन भाव केर अजगुत संगम देखबा मे अबैछ । जेना कि 

तप्त रेतपर 
फरफड़ाइत माछ
कानि – कानि
कऽ रहल नाच
रेतापर फाड़ैत चीस
उड़बाक लेल आसमान दिश
अभागल
देहसँ झड़ए लागल
चाँदीकेँ कण
झूमि उठल
कतेको आँखिक मन
जरि रहल माछक तन ........................ “बाउल परक माछ” 

               सम्पुर्ण काव्य रचना विशुद्ध खाँटी मैथिली मे थिक; हँ कत्तहु – कत्तहु किछु हिन्दी शब्दावलीक प्रयोग ठीक सँ मेल नञि खाइत अछि, पर से अत्यल्प । भाषा बहुतहि सहज ओ स्वभाविक थिक आ ताहि कारणेँ पढ़बा काल घटनाक्रम वा वर्णित विषय पाठककेँ अपना समक्ष घटित होइत प्रतीत होएतन्हि । जेना कि देखल जाओ 

शब्द नहि रहल दिलक बोल
तेँ नहि रहल ओकर मोल
......................... .................
बजैत रहैत छी अमरीत बोल
भीतर रखने बीखक घोल ......................... “दिलक बोल”

                  कोनहु साहित्य मे जँ विविधता नञि हो तँ ओ सम्पुर्ण नञि कहबैछ । जहिना भोजन मे षड्‌रस केँ भेनाइ आवश्यक तहिना साहित्य मे नवरस ओ तकर उपरस सभक समावेश परमावश्यक । मात्र शिंगार ओ भक्ति रसोपरस सँ साहित्य समग्र नञि भऽ सकैछ – एहि प्रकारक साहित्य श्रृजन एकभगाह ओ असन्तुलित कहबैछ । “अम्बरा” मे ई दोष नञि । एहि छोट – क्षिण काव्य संग्रह मे बहुत अधिक “विषय - वैविध्य” थिक । हरेक रचना भाव – स्वभाव मे एक दोसरा सँ भिन्न । आ इएह एकर सभसँ पैघ विशेषता थिक । एक दिशि “जाति” आ “हम फेर उठब” सन रचना जञो सामाजिक वैषम्य पर प्रहार करैछ तँ दोसर दिशि “ज्ञानक झण्डा” सन कविता समाज मे पसरल अंधविश्वास आ अशिक्षा पर । कमजोर वा दलित व्यक्तिक मनोदशाक केहेन मार्मिक चित्रण कएल गेल अछि से देखू

टप – टप चुबैत खूनक बूनसँ
धरती भऽ रहल स्नात
पूछि रहल अछि चिड़ै
अपना मन सँ ई बात
आबऽ बाला ई कारी आ भारी राति
कि नहि बाँचत हमर जाति ..... ? ......................... “चीड़ीक जाति”

        “हथियारक सभा” आ “अहिंसक वीर” सन रचना कोनहु समस्याक शान्तिपुर्ण समाधान करबा पर ओ अहिंसा पर जोर दैछ आ अनेरोक रक्तपात व नक्शलवादी प्रवृत्ति केँ विरोध करैत बुझना जाइछ । देखल जाओ

सुनह लगाबह ध्यान
खोलह अपन अपन कान
तब भेटतह आजुक सम्मान
बिनु देहसँ गिरौने रकत
कऽ सकैत छह दोसर जुगत
................................................ .........
बिनु हिंसाकेँ जे कएने होयत हृदयपर राज
ओकरे भेटत ई अमूल्य ताज ........................ “हथियारक सभा”

           एहि पोथी मे “मुनियाँक चिन्ता” आ “कथीक गाछ” नामक बालकविता सेहो अछि, जाहिमे बहुत सुन्नर ढंग सँ बाल मनोभाव केँ व्यक्त कयल गेल अछि । मुनियाँक छोट भाए केर जन्म भेलै, पूरा परिवार खुशी मना रहल छल आ मुनियाँ कानि रहलि छलि । पुछला पर की उत्तर भेटलैक से अपनहु सभ सुनू

ई तँ छै खुशीक बात
जनमल तोरा भाए
कतेक खुशी छह तोहर माए
दादी, सबटा जानै छी
हम ओहि लए नहि कानैत छी
चिन्ता अछि हमरा आब के कोराकेँ लेत
दूधो माए पिबऽ नहि देत ........................ “मुनियाँक चिन्ता”

                 “गाछक हिस्सा” आ “गाछक बलिदान” पर्यावरण असन्तुलन ओ तकर रक्षण दिशि ध्यानाकृष्ट करैछ जखन कि “मनोवाणछित चान” आ “परेमक अधिकार” किञ्चित् शिंगार रसक कविता थिक । “बाढ़िक चित्र” नामक कविता मे २००८ ई॰ मे कुसहा लऽग टुटल कोसीक बान्ह सँ आयल बाढ़िक बहुत मर्मस्पर्शी आ सजीव चित्रण कयल गेल अछि । किछु अंश द्रष्टव्य थिक

एहसरि
अर्धनग्न स्त्री
परिश्रान्त
मुख क्लान्त
बैसल अछि धारक कात
देह स्नात जिअत अछि कि मुइल
साइत सोचि रहल अछि इएह बात
एखनहि निकलल अछि
संघर्ष कऽ बाढ़िक धारा सँ ........................ “बाढ़िक चित्र”

      सम्प्रति मैथिली साहित्यक दशा – दिशा, मैथिलीक प्रति कविक प्रतिबद्धता ओ ताहि सन्दर्भ मे देल गेल स्पष्टीकरण देखल जाओ 

दोसरोक माय
अछि हमरे माय
तँ कि यौ भाय
अपना मायकेँ बिसरि जाइ
..........................................
मैथिलीक अछि असीम भण्डार
एहि बात केँ हम सोचि ली
घर भरल हो जखन 
दोसरासँ किएक पैंच ली
राखि संतोष करी उपाय
की यौ भाय । ........................ “माय”

               ओना तँ हरेक कविता चर्चाक अपेक्षा रखैत अछि पर से सम्भव नञि । जहिना भात सीझलै कि नञि से ओहि मे सँ मात्र एक टा दाना केँ छूबि अन्दाज लगाओल जा सकैछ आ तहिना उपरोक्त किछु उदाहरण सभ सँ समग्र पोथीक अनुमान । व्याकरण केर दृष्टिकोन सँ एहि पोथीक एक गोट खास विशेषता अछि जे विभक्ति (कारक चिन्ह वा शब्द) प्राचीन मैथिली जेकाँ मूलशब्द केर संगहि लिखल गेल अछि ।* अन्त मे मैथिलीप्रेमी पाठक लोकनि सँ एतबहि कहए चाहबन्हि कि ई कविता संग्रह हुनिका आशा सञो बेसी रुचिगर लगतन्हि । 

पोथीक नाँव :– अम्बरा ( मैथिली कविता संग्रह) 
लेखक :– श्री राजदेव मंडल
प्रकाशक :– श्रुति प्रकाशन ८/२१, भूतल, न्यू राजेन्द्र नगर, नई दिल्ली - ‍११०००८
दाम :– ‍१०० टाका मात्र

पोथी समीक्षा : गामक जिनगी समीक्षक डॉ॰ शशिधर कुमर

हम कोनो व्यावसायिक आलोचक, समालोचक वा समीक्षक नञि छी, पर मैथिली पढ़ब – लिखब नेनपने सँ नीक लगैत छल तेँ आइ एक गोट पोथीक समीक्षा लीखि रहल छी । पोथी थिक श्री जगदीश प्रसाद मण्डल जी रचित कथा संग्रह “गामक जिनगी” - ओना कोनो पोथीक ई हमर पहिलहि समीक्षा छी । एहि पोथीक समिक्षा पहिनहु किछु जगह ब्लॉग वा पत्रिका आदि मे प्रकाशित भऽ चुकल अछि जे पढ़ि हम स्वयं पुर्ण रूपेण संतुष्ट नञि भऽ सकलहुँ आ पोथीक पुनर्समिक्षा करबाक इच्छा भेल । बहुधा देखल जाइत अछि कि कथा संग्रहक नाँव कोनो एक गोट महत्त्वपुर्ण कथा वा घटना वा अंश पर राखि देल जाइत अछि, पर एहि बेर से नहि । एहि संग्रह मे ‍१९ गोट कथाक समावेश भेल अछि आ संग्रहक हरेक कथा स्वतंत्र रूपेँ व समग्र रूपेँ संग्रहक नाँव केँ प्रतिबिम्बित करैछ । हर कथा मे गामक जिनगीक एक अलगहि स्वरुप देखबा मे अबैछ ।
                                आमुख मे श्री सुभाष चन्द्र यादव जी बहुत सटीक लिखने छथि - "एहि संग्रहक कथा सभ मे औपन्यासिक विस्तार अछि । वर्त्तमान समए मे प्रचलित आ मान्य कथा सँ ई कथा सभ भिन्न अछि । हर कथा घटना बहुलता आ ऋजु सँ युक्त अछि ।" पर एहि औपन्यासिक विस्तार आ ऋजु सँ युक्त होयबाक बादो हरेक कथा रुचिकर, लयबद्ध आ सुसम्बद्ध अछि । आधुनिक टी॰भी॰ धारावाहिकक सदृश भँसियाइत नञि अछि, दिशाहीन सन नञि बूझि पड़ैत अछि । कथा केर प्रवाह दिग्भ्रमित नञि होइत अछि । कथाक हर घटना अप्पन ऋजु वा वक्रताक बावजूदो कथाक मुख्य भावनाक वा विषयवस्तुक अनुपूरक व सम्वाहक अछि । जेना कि “डाक्टर हेमन्त” नामक कथा मे गामक जमीनक दियादी बँटवाड़ा, सरकारी नोकरीक झंझटि आ क्लिनिकक झंझटि आ बाढ़िक संघर्ष चित्रित अछि पर तइयो कथा मे कोनो विरोधाभास नञि अबैछ, कथा एक लय मे शान्त अखण्ड प्रवाह जेना आगू बढ़ैत रहैत अछि । 
                              रौदी – दाही मिथिलाक सभ दिन सँ प्रमुख समस्या – तेँ गामक जिनगी मे ओ समाविष्ट नञि हो से कोना । कथा संग्रहक आरम्भ “भैँटक लावा” आ “बिसाँढ़” नामक कथा सभ सँ होइत अछि जाहि मे क्रमशः दाही (बाढ़ि) आ रौदी (अकाल) केर बहुतहि सटीक व सजीव वर्णन भेटैछ । ओना मिथिलाक अभिन्न अंग होयबाक कारणेँ एहि बिभीषिका सभक विभिन्न रूपक दर्शन आनो कथा सभ मे भेटैछ – पर हर बेर नऽव स्वरूप मे, पुनरुक्ति कतहु नहि । 1967 ई॰ केर अकाल मे भारतक तत्कालीन प्रधानमण्त्री केँ देखाओल गेल छल जे कोना मुसहर लोकनि बिसाँढ़ खा कऽ अपन जीवनक रक्षा कएलन्हि – तकरे अधार बना कऽ “बिसाँढ़” नामक कथा लिखल गेल अछि । यद्यपि ई एहि प्रकारक कथा मैथिली साहित्य मे बहुत पहिनहि अयबाक चाहैत छल – पर नहि आबि सकल, एखन आयल अछि – मैथिली साहित्यक धरोहड़ि कथा बनत ।
                                     जिनगी वास्तव मे एकटा संघर्ष थिक, पर जे हिम्मत नञि हारैत अछि, परिस्थितिक सामना करैत अछि आ आगाँ बढ़ैत अछि सएह जीतैत अछि । ई एहि संग्रहक पुर्वार्धक हरेक कथाक मूल मण्त्र अछि तथापि पढ़बा मे उपदेशात्मक कथा सनि बोझिल कथमपि नञि बूझि पड़त । हर कथा मैथिल समाजक विभिन्न सामाजिक, आर्थिक वा व्यावसायिक वर्गक जीवन संघर्ष केँ सजीव रूपेँ चित्रित करैछ चाहे ओ बोनिहारिन “मरनी” हो, ठेलाबला हो, चूनवाली हो, दू पाइ कमयबाक इच्छा सँ दिल्ली जायबला “फेकुआ” हो, पीरारक फऽड़ बेचि गुजर कएनिहार “पिचकुन आ धनिया” हो वा जीविकाक लेल संघर्षरत “शोभाकान्त व उमाकान्त” हो । चाहे ओ जीवनक उत्तरार्ध मे गाम आयल “श्रीकान्त आ मुकुन्द” होथि, नऽव युगक जीवनक अभिलाषी “कुसुमलाल” हो, माए बाप केँ एकसरि छोड़ि अमेरिका बसनिहार “रघुनाथ” हो अथवा अप्पन निजि जिनगी आ ऑफिसक बीच ओझड़ायल “डॉक्टर हेमन्त” हो । 
                 किनको मोन मे भऽ सकैत छन्हि जे जिनगी तऽ ओहिना संघर्ष थिक - ओहि मे ई संघर्षक खिस्सा – पिहानी के पढ़त ? पर से नहि, लेखक केँ मनोविज्ञान पर एतेक जबर्दस्त पकड़ि छन्हि जे ओ जिनगीक संघर्षक एहि कथा सभ केँ सेहो अत्यन्त सहज ओ रुचिकर ढंग सँ प्रस्तुत करबा मे सक्षम भेलाह अछि । कोनो कथा कत्तहु निन्नक गोली सनि नञि बुझना जायत । पात्र सभक नाँव – गाँव भले जे हो पर कथा पढ़बाक काल हर वर्गक पाठक लोकनि केँ कथा अपनहि वा अपनहि कोनो सर – सम्बन्धीक बुझि पड़तन्हि ।
                                   बहुतेक कथा जिनगीक संघर्ष वा दुख सँ प्रारम्भ होइत अछि पर सुखान्त अछि – ई पाठक केँ एक मनःस्फुर्ति दैछ । किछु कथा किछु वर्ग व ओहि वर्ग सँ जुड़ल व्यवसायक सैकड़ो वर्षक उतार चढ़ाव व संघर्ष केँ चित्रित करैछ, जेना कि कुम्हार (हारि – जीत) , चूनवाली  आदि । वास्तव मे ठेलावला, रिक्सावला, चूनवाली, बोनिहारिन, कुम्हार आदि सभ तऽ अपनहि मैथिल समाजक अंग छथि पर मैथिली साहित्य शायदे कखनहु अपन एहि अभिन्न अंग सभक सुधि लेलक आ तेँ एहि वर्गक लोक सभ अपना केँ मिथिला - मैथिली सँ पृथक बुझैत रहलाह । ई कथा संग्रह हुनिका लोकनिक मन मे विश्वास आ ढाढ़स दैछ कि ओहो सभ एहि मैथिल समाजक अविभाज्य अंग छथि । यद्यपि पुर्व मे किछु साहित्यकार लोकनि एहि आर्थिक वा सामाजिक रूप सँ पिछड़ल , संघर्षरत समुदाय पर लिखबाक प्रयास कयलन्हि अछि पर या तऽ ओ कृत्रिम बुझाइत अछि अथवा यथार्थपरक रहितहु पाठकक लेल ओ बोझिल सन बुझना जाइछ । एहि विषय सभ पर यथार्थपरक नीक व रुचिकर कथा सभक मैथिली साहित्य मे बहुधा अभाव रहल अछि । हमरा विचारेँ एहि कथा संग्रह मे ई दोष नञि – कथा संग्रह केर हरेक कथा विभिन्न समाजिक वा आर्थिक वर्गक जीवन संघर्ष केँ चित्रित तऽ करैछ पर संगहि संग पढ़बा मे रुचिकर सेहो लगैछ । एकर अतिरिक्त किछु कथा – जेना कि “अनेरुआ बेटा” आ “कामिनी” - अन्त मे एक गोट प्रश्न छोड़ि समाप्त होइत अछि । कथा लेखनक ई शैली मैथिलीक प्रशिद्ध कथाकार स्व॰ राजकमल चौधरीजीक कथालेखनक शैली सँ साम्य रखैत अछि जखन कि आन कथा किछु हद तक स्व॰ हरिमोहन झाजीक कथाशैली सँ साम्य प्रदर्शित करैछ । पर शैली मे एहि प्रकारक साम्य कथमपि कोनो कथाक मौलिकता केँ प्रभावित नञि करैछ । 
                   किछु लोकनिक कहब छन्हि जे लेखकक कथा संघर्षपरक छन्हि , सौन्दर्यपरक नहि । पर हमरा जनैत लेखक जिनगीक संघर्षक संग – संग जिनगीक सौन्दर्यक सफल ओ सकारात्मक चित्रण कयलन्हि अछि । लेखकक सौन्दर्यबोध मात्र दैहिक नञि भऽ कऽ बहुत व्यापक अछि आ कायिक सौन्दर्यक अतिरिक्त जगह – जगह पर मानसिक ओ प्राकृतिक सौन्दर्यक अजगुत चित्रण भेटैछ ।
                 लेखक जहिना मैथिल समाजक विभिन्न सामाजिक, आर्थिक वा व्यावसायिक रूपेण दलित (पिछड़ल) वर्गक जीवन संघर्ष केँ अपन लेखनी मे उताड़बा मे सफल रहलाह अछि तहिना स्त्रिगणक मनोवैज्ञानिक चित्रण करबा मे सेहो । हरेक वयसक व वर्गक स्त्रीक मनोदशाक सजीव चित्रण एहि कथा संग्रह मे यत्र – तत्र भड़ल पड़ल अछि । चाहे ओ भैँटक लावा मे “जिबछी” हो, बिसाँढ़ मे “सुगिया” हो, पीरारक फऽड़ बेचनिहारि “धनिया” हो, फेकुआक माए “रामसुनरि” होथि, पजेबा फोड़निहारि वृद्धा “मरनी” होथि वा मरनीक संग लबलब कएनिहारि स्वच्छन्द बाला “सुगिया” । चाहे पति सँ दू घड़ी बात करबाक लेल तरसैत “रागिनी” हो, चून बेचनिहारि “मखनी”, ओकर पुतोहु “फुलिया” वा ओकर पोती “कबुतरी” हो, मसोमात “लुखिया” होथि, आधुनिक नऽव परिवेशक बाला “सुनएना” हो अथवा कोशी कछेड़क निश्छल बाला “सुलोचना” हो । 
                एकर अतिरिक्त लेखक किछु आनो सामाजिक समस्या सभ दिशि इशारा कएलन्हि अछि यथा स्त्री – भ्रुण हत्या (ठेलाबला), शराबक समस्या व नऽव जीवन शैलीक लापरवाह अनुकरण (भैयारी), नऽव जीवन शैलीक महत्त्वाकांक्षा आ टूटैत सम्बन्ध (बहीन, पछताबा व कामिनी), प्रतिभा पलायन (पछताबा), साम्प्रदायिक हिंसा (बहीन) आ रुपैय्याक जोड़ेँ बेमेल बियाह (कामिनी) आदि ।

                                          पोथीक भाषा शैली सर्वसामान्यक विशुद्ध मानक मैथिली थिक । ओना कतहु कतहु क्रिया आदिक प्रयोग मे मानक मैथिली सँ थोड़ेक फड़ाक बुझि पड़ैत अछि (यथा “लागल” केर स्थान पर “लगल”)  परञ्च ओ कथाक पात्र आ परिवेशक अनुरूपहि थिक तेँ ओ मानक मैथिली सँ पृथक नञि थिक । भाषा विन्यास बहुतहि सहज व स्वभाविक अछि तेँ बुझबा मे दुरूह नञि । “किछु” केर जगह हमेशा “कुछ” वा “कछु” केर प्रयोग भेल अछि जे बहुशः कथानकक अनुरूप सही अछि पर कतहु - कतहु मानक मैथिली मे भऽ रहल सम्वाद मे अचानक “कुछ” या “अइठीन” केर प्रवेश अखरैत अछि । एक्कहि शब्द, पात्र व परिवेशक अनुसारेँ साहित्य मे एक स्थान पर मानक भऽ सकैछ तऽ दोसर स्थान पर नञि – यथा “कुछ” या “अइठीन” – जँ कथा मे कोनो गामक सर्वसामान्य लोकक वार्त्तालाप थिक तऽ ओहि ठाम मातृभाषा होयबाक कारणेँ ओ मानक मानल जायत, पर ओएह शब्द जँ कथा मे कोनो मैथिलीक विद्वान बजैत अछि वा आन लोक - जकर मातृभाषा मैथिली नञि थिक - से बजैत अछि तऽ ओहि ठाम ओ मानक सँ विचलित बूझल जायत ।  पोथी मे शब्दक वैविध्य आ खाँटी मैथिलीक विलोपित होइत शब्द सभक प्रयोग स्व॰ हरिमोहन झा जीक रचना सभक याद करा दैत अछि । खाँटी मैथिलीक विलोपित होइत शब्द सभक ई कथा सभ एक अनमोल संग्रह थिक । इतिहासक किछु एहनो बातक इशारा एहि कथा सभ मे भेटैछ जे शायद एखनुका पीढ़ीक धिया पुता केँ नञि बूझल होन्हि – यथा चून पहिने डोका सँ बनैत छल (चूनवाली) , कोना छतौनी सन सन मैथिल क्षेत्र मे अपनहि गलती सँ आन भाषा - भाषीक आधिपत्य भेल (बोनिहारिन मरनी) आदि ।
            अन्त मे हम श्री गजेन्द्र जीक पाँती (पोथीक पश्च मुखपृष्ठ पर देल) केँ दोहड़ाबए चाहब जे श्री जगदीश प्रसाद मण्डल जी केर कथा सभ मैथिली कथा धाराक यात्रा केँ एकभगाह होयबा सँ बचा लैत अछि । एहि संग्रहक सभटा कथा उत्कृष्ट अछि, मैथिली साहित्यक रिक्त स्थानक पुर्ति करैत अछि आ मैथिली साहित्यक पुनर्जागरणक प्रमाण उपलब्ध करबैत अछि । 
                 ओना तऽ कोनो पोथी केँ पाठ्यक्रम मे शामिल करबाक की प्रक्रिया छै से हमरा नञि बूझल पर अपन विषयवस्तु, मौलिकता आ भाषाविन्यासक आधार पर एहि कथा सभ केँ पाठ्यक्रम मे सम्मिलित करबाक चाही । केवल एक – आध कथा केँ नहि अपितु सम्पुर्ण कथा – संग्रह स्नातक वा उच्चतर मैथिलीक पाठ्यक्रम मे शामिल करबा जोग अछि । बहुत सम्भव अछि जे हमर ई बात आइ अतिशयोक्ति लागए पर भविष्य मे ई जरूर मैथिली पाठ्यक्रम मे अपन स्थान बनाओत । 

पोथीक नाँव – गामक जिनगी
लेखक – श्री जगदीश प्रसाद मण्डल
प्रकाशक – श्रुति प्रकाशन, 8/‍12, न्यू राजेन्द्र नगर, दिल्ली - ‍110008
दाम (अजिल्द / साधारण संस्करण‍)   -  भारतीय रु॰ 200/ मात्र, वा US $ 60